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सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३७) और प्रायताकरके पूर्वोक्त मूत्रके अवरोधसे सब रोग उपजते हैं तहां बस्ती अभ्यंग वातनाशक द्रवमें स्नान पसीना बस्तिकर्म ये सब करने हितहैं ॥ ६ ॥
अन्नपानं च विभेदि विड्रोधोत्थेषु यक्ष्मसु ॥ .
मूत्रजेषु च पाने च प्राग्भक्तं शस्यते घृतम् ॥ ७ ॥ विष्ठाके वेगको धारणकरनेसे उपजे रोगोंमें विष्ठाको भेदित करनेवाला अन्न और पान हितहै; मूत्रके वेगको रोकनेंसे उपजे रोगोंमें भोजनसे पहले घृतका पीना श्रेष्ठहै ॥ ७ ॥
जीर्णान्तिकं चोत्तमया मात्रया योजनाद्वयम् ॥
अवपीडकमेतच्च संज्ञितं धारणात्पुनः॥८॥ परंतु यह घृत जीर्णोतकरूप होवे अर्थात् उत्तम मात्राकरके संयुक्त हो जो भोजनसे पहले युक्तकियाजावै वह जीर्णातक होताहै और जो भोजनकिये पोछे दिया जावै वह अवपीडक होताहै ॥ ८॥ .
उद्गारस्यारुचिः कम्पो विबन्धो हृदयोरसोः॥
आध्मानकासहिध्माश्च हिमावत्तत्र भेषजम् ॥९॥ डकारके वेगको धारण करनेसे अरुचि कंप हृद्विबंध उरोविबंध आध्मान खांसी हिचकी ये उपजते हैं तहां हिचकीके चिकित्साकी तरह औषध है ॥ ९॥
शिरोर्तीन्द्रियदौर्बल्यमन्यास्तम्भादितं क्षुतेः॥
तीक्ष्णधूमाञ्जनाघ्राणनावनार्कविलोकनैः॥ १०॥ छींकके वेगको रोकनेसे शिरमें शूल इंद्रियोंकी दुर्बलता मन्यास्तंभ वात लकुवावात ये रोग उपजते हैं तहां तीक्ष्ण धूम तीक्ष्ण अंजन तीक्ष्ण नस्य सूर्यके सन्मुख देखना इन्होंकरके ॥ १० ॥
प्रवर्तयेत् क्षुति सक्तां स्नेहस्वेदौ च शीलयेत् ॥
शोषांगसादबाधिर्यसंमोहभ्रमहृद्दाः ॥११॥ छींकोंकी प्रवृत्ति करावे और स्नेह तथा स्वेदकाभी अभ्यास करावे और शोष अंगकी शिथिलता बधिरपना संमोह भ्रम हृद्रोग ये सर्व ॥ ११ ॥
तृष्णाया निग्रहात्तत्र शीतः सर्वो विधिर्हितः॥
अंगभंगारुचिग्लानिकार्यशूलभ्रमाः क्षुधः ॥ १२॥ तृषाके रोकनेसे होते हैं तहां सब प्रकारसे शीतलविधि हित है क्षुधाके रोकनेसे अंगभंग अरुचि ग्लानि कृशता शूल भ्रम ये रोग उपजते हैं ॥ १२ ॥
तत्र योज्यं लघु स्निग्धमुष्णमल्पं च भोजनम् ॥ निद्राया मोहमूर्दाक्षिगौरवालस्यजृम्भिकाः ॥१३॥
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