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परिभाषाप्रकरणम्
मिथुने—यत्र तु स्त्री-पुंसात्मकस्य किं वा पुं-नपुंसकात्मकस्य शब्दस्य प्रवृत्तिभवति, तत्र 'द्वयोः' इति पदं ज्ञेयम् । यथा-'द्वयोः प्रणाली पयसः'। अत्र प्रणालशब्दः स्त्री-पुंसयोः । द्वयोर्खालकीलौ', स्त्री-पुंसयोः।।
निषिद्धलिङ्ग-निषिद्धं निषेधीकृतं लिङ्गं यस्य तत् पदं, शेषार्थम् अवशिष्टलिङ्गबोधकं बोध्यमिति तात्पर्यः । यथा-'वज्रमस्त्री'। अत्र स्त्रीलिङ्गस्य निषिद्धत्वात् पुं-नपुंसकता वज्रशब्दस्य ज्ञेया । __त्वन्ताथादि-तु शब्दः अन्ते यस्य तत् त्वन्तम् । अथ शब्दः आदी यस्य तत् अथादि । त्वन्तञ्च अथादि च नामपदं, लिङ्गपदं, सर्वनामपदम् अव्ययपदञ्च पूर्वभाक् पूर्वपदसम्बन्धि न भवति अपितु तस्योत्तरपदेन सह सम्बन्ध इति सिद्धान्तः। नामपदं यथा-'पुनर्नवा तु शोथघ्नी'। 'नगरी त्वमरावती' । लिङ्गपदम-''सित्वन्तद्धिः' । शस्तं चाथ त्रिषु द्रव्ये'। सर्वनामपदम्-'तस्य तु प्रिया' । अव्ययपदम्-‘वा तु पुंसि' । अथादि-वातायनं गवाक्षोऽथ', अनुक्रोशोऽप्यथो हसः' । 'तपा माघेऽथ फाल्गुने ॥ ५ ॥
हिन्दी-प्रायः विशेषण शब्दों का प्रयोग विशेष्य के अनुसार चलने के कारण उनका लिंग परिवर्तन हो जाता है, अतः ऐसे शब्द जिनका तीनों लिगों में प्रयोग होता है उनके साथ 'त्रिष' शब्द का तथा जो शब्द उभयलिंगात्मक (पुल्लिंग-स्त्रीलिंग, या पुल्लिग-नपुंसकलिंग) हों उनके लिए 'द्वयोः' शब्द का प्रयोग किया गया है।
जहाँ किसी लिंग विशेष का निषेध किया गया है वहाँ उससे शेष लिगों में उस शब्द का प्रयोग समझना चाहिए। श्लोक के बीच में जिस शब्द के साथ 'तु' अथवा 'अथ या अथो' शब्दों में से किसी का प्रयोग हुआ हो, उस शब्द से पूर्व शब्द का सम्बन्ध समाप्त हो जाता है। शेष संस्कृत व्याख्या में दिये हुए उदाहरणों पर ध्यान दें ॥५॥
वक्तव्य-अमरकोष पढ़कर केवल याद कर लेने से ही तब तक ठीक-ठीक समझ में नहीं आ सकता जब तक श्लोक संख्या २ से लेकर ५ तक की व्याख्या को आप भलीभाँति मन में नहीं बैठा लेते। अन्यथा प्रयोग करने पर आप पर्यायों तथा लिंगों की पग-पग पर भूल करते जायेंगे, फलतः आपका श्रम व्यर्थ जायेगा।
इति परिभाषाप्रकरणम् ।
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