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उरु चरितम्
असमय भवतामतत् औदास्यं किं नु हेतुकम् ॥८४
अग्रसनस्तदाब्रवीत् वैश्यानां ननु कर्तव्यं पशुरक्षा प्रपालनम् ॥८५ हिंसनं हि महत्पापं वैश्यानां प्रतिषेधितम् ॥८६ मया महान् भ्रमोऽकारि यागे पशुहिंसनम् । न जाने ह्यस्य............भगवान् कि प्रदास्थति ॥८७ कियजन्माधि मम नाके वसनं भवेत् अलं हिंसामयात् यागात्........श्रेय उच्यते ॥८८ इथं भ्रातृवचः श्रुत्वा शूरसेनोऽब्रवीत् तदा दुःखितेषु दयालो हि श्रूयतां ननु मद्वचः ||८६
शूरसेन ने हाथ जोड़ कर अपने भाई को कहा- आपकी यह उदासीनता असमय की है। इसका क्या कारण है ? ८४
अग्रसेन ने तब कहा- वैश्यों का कर्तव्य निश्चय ही पशुओं की रक्षा और पालन करना है । हिंसा करना महापाप है। वैश्यों के लिये उस का प्रतिषेध किया गया है। मैंने बड़ा भारी भूम किया, कि जो यज्ञ में पशु हिंसन किया । न जाने, इसका क्या फल मुझे मिलेगा ? न जाने कितने जन्मों तक मुझे नरक में रहना होगा ! अब इस हिंसामय यश का अन्त हो- इसी में श्रेय है । ८५-८८ __ अपने भाई के इन वचनों को सुनकर शूरसेन बोला- हे दुःखितों के प्रति दयालु ! मेरे वचनों को सुनिये । ८९
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