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अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास
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द्वितीयऽहनि प्रातवें नोत्थितः पृथिवीपतिः परस्परमपृच्छन्त यज्ञकर्तार एव हि ॥८० कथं नहि समा यातोऽद्य यागे नगधिपः । काली गच्छति यागस्य प्रतीक्षन्तो महीपतिम् ॥८१ एको पै प्रहरो जातः प्रतीक्षन्तः परस्परम राजानन्तु ममाहातुं शूरसंनी हि प्रषितः ॥८२ पण्डितैः शूरसेनस्तु गतो राजगृहेषु वै विषण्ण भ्रातरं दृष्ट्वा चकितः खिन्नमानसम ॥८३ करबद्धः शूरसंनःभ्र तरमुक्तवान् तदा
उस दिन का कृत्य तो अग्रसेन ने समाप्त कर दिया । शयनागार में प्रविष्ट होकर वह सोचने लगा । ७९
दूसरे दिन पृथिवी का स्वामी सुबह के समय उठा नहीं। यज्ञ कर्ता लोग आपस में पूछने लगे, क्या बात है, जो आज पृथिवी पति यज्ञ में नहीं आया । ८०-८५
राजा की प्रतीक्षा करते हुवे समय गुज़रने लगा । (यश कर्ताओं के) इस प्रकार बात चीत करते हुवे एक प्रहर बीत गया । राजा को बुलाने के लिये शूरसेन को पण्डितों ने भेजा। शूरसेन राजमहल में गया और वहां जाकर अपने भाई को दुखी तथा खिन्नमन देखकर चकित रह गया। ८२-८३
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