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महालक्ष्मी व्रत कथा
सदेहेन च गोलोकमन्ते यास्यसि निश्चितम् । ध्रुवस्थ पूर्वे द्वौतारौ (?) भविष्ये च प्रिया सह ॥६७ अवतारो नागराजस्य अस्ति कश्चिन्महीरथः कोलविध्वंसि भूपस्य कन्यका वामलोचना ॥६८ तासा गृहणीश्व पाणीश्च त्वदर्थे तपसि स्थिता तासा पुत्रैश्च मही व्याप्ता भविष्यति
यथा तारागगर्योम शतचन्द्रविरोचते ॥ महालक्ष्मी अन्तर्धान होगई और राजा कोलपुर की ओर गया इत्युक्त्वान्तर्दधे लक्ष्मी राजा पूर्णमनोरथः प्रगाम्य दण्डभृत् भूमौ राजा स्वनगरं ययौ ॥१००
तू पुत्र, पौत्र तथा अपने कुल के साथ बिना किसी बिघ्न बाधा के राज्य का भोग कर, और फिर सदेह स्वर्ग लोक को प्राप्त हो । स्वर्ग लोक में तेरी पत्नी भी तेरे साथ रहे । ९६-९७
नागराज का अवतार महीरथ नाम का एक राजा है, कोल का विध्वंस करने वाले उस राजा की कन्यायें अत्यन्त सुन्दर हैं । तू जाकर उनका पाणि ग्रहण कर, वे तेरे लिए ही तपस्या कर रही हैं। उनके पुत्रों से यह पृथ्वी वैसे ही व्याप्त हो जावेगी, जैसे कि यह आकाश तारों के समूह तथा सैकड़ों चन्द्रमाओं से शोभायमान होता है । ९८-९९ ___ यह कह कर लक्ष्मी अन्तर्धान हो गई और राजा का मनोरथ पूर्ण हो गया। पृथ्वी पर दण्डवत् प्रणाम कर वह दण्डधर राजा अपने नगर की ओर वापिस हुवा। १००
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