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अभिज्ञान शाकुन्तल ]
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[ अभिज्ञान शाकुन्तल
कर अपने आसन से उठकर उनका अभिवादन करता है । आश्रमवासी एवं कण्व ऋषि के कल्याण की भावना उसके मन में सजग रहती है। जब शकुन्तला को लेकर आश्रमवासी उसके दरबार में जाते हैं तो वह सर्वप्रथम यही प्रश्न करता है कि'अपि निर्विघ्नतपसो मुनयः । वह मर्यादा का कभी भी अतिक्रमण नहीं करता । अपूर्व लावण्यवती अनिय सुन्दरी शकुन्तला को देखकर वह आकृष्ट होता है, किन्तु उसके प्रति प्रेम-प्रदर्शित करने के पूर्व यह जान लेना चाहता है कि वह उसके विवाह के योग्य है या नहीं । यद्यपि उसके विवेक एवं अन्तर अपने योग्य मानने को विवश करते हैंअसंशयं क्षत्र परिग्रहक्षमा यदाय्यंमस्यामभिलाषि मे मनः ।
सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु प्रमाणमन्तः करणप्रवृत्तयः ॥ १।२३
"इसमें सन्देह नहीं कि यह क्षत्रिय के ग्रहण करने योग्य है । क्योंकि मेरा साधु मन इसे चाहता है । किसी संदिग्ध वस्तु में सज्जनों के अन्तःकरण की प्रवृतियाँ ही प्रमाणित होती हैं ।"
दुष्यन्त अपने वंश की उज्ज्वल परम्परा पर गर्व करता है । वह मानता है कि जब तक कोई भी पौरव इस पृथ्वी पर राज्य करेगा तब तक तपोवन की मर्यादा तथा ऋषि-मुनियों एवं उनकी कन्याओं का कोई भी बुरा नहीं हो सकता । वह गम्भीर प्रकृति का मनुष्य है । शकुन्तला का तिरस्कार करने पर शार्ङ्गरव उसे कटूक्तियों से प्रहार करता है पर दुष्यन्त उसकी बातों को सहन कर कठोर आत्म-संयम का परिचय देता है । एक असाधारण रूपवती युवती जब उसे पति के रूप में मानने की प्रार्थना करती है और ऋषि भी उसके लिए तर्क उपस्थित करते हैं, फिर भी वह उसके प्रति झुकता नहीं । उसके इस आत्म-संयम एवं दृढ़व्रत की प्रशंसा कंचुकी भी करता है'अहो धर्मापेक्षिता भर्तुः । ईदृशं नाम सुखोपनतं रूपं प्रेक्ष्य कोऽन्यो विचारयति ।'
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उसे हम ललित कलाओं का मर्मज्ञ एवं अनुरागी के रूप में पाते हैं। वह रानी हंसपादिका के गीत को सुनकर उस पर जो टिप्पणी करता है उससे उसकी कलाभिज्ञता की प्रतीति होती है- 'अहो रागपरिवाहिनीगतिः' । वह चित्रकला में भी निपुण है । शकुन्तला के वियोग में उसने आश्रम की पृष्ठभूमि में जो उसका चरित्रांकन किया है उसमें उसके अंगसौष्ठव के अतिरिक्त मानसिक भावों की भी अभिव्यक्ति हुई है । विदूषक एवं अप्सरा सानुमती दोनों ही उसकी चित्रकला की प्रशंसा किये बिना नहीं रहते ।
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राजा धीरोदात्त नायक, उत्तम पति तथा उत्साही प्रेमी है अनेक पत्नियों के साथ सम्बन्ध रहने पर भी उसमें नैतिकता का भाव बना रहता है। नवीन स्त्री पर आकृष्ट हो जाने पर भी वह अपनी अन्य स्त्रियों के प्रति सम्मान का भाव बनाये रखता है एवं उनके प्रति अपने कर्तव्य से च्युत नहीं होता । वह उनकी सुख-सुविधा का सदा ध्यान रखता है । शकुन्तला के प्रति प्रगाढ़ प्रेम होते हुए भी वह रानी वसुमती के आगमन की सूचना प्राप्त कर शकुन्तला के चित्र को छिपा देता है। रानी हंसपादिका के गीत से यह ध्वनि निकलती है कि वह 'अभिनव मधु-लोलुप' है, पर इस नाटक में इस वृत्ति का कोई संकेत प्राप्त नहीं होता ।