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________________ अभिज्ञान शाकुन्तल] ( २४ ) [अभिज्ञान शाकुन्तल कवि ने दुष्यन्त में मानव-सुलभ दुर्बलताओं का निदर्शन कर उसे काल्पनिक या आश्चर्यजनक पात्र नहीं बनाया है। छिप कर तपस्विकन्यकाओं के रूप-दर्शन करने एवं उनके परिहासपूर्ण वार्तालाप सुनने, शकुन्तला की सखियों से अपना असत्य परिचय देने, माता की आज्ञा को बहाने से टाल कर अपने स्थान पर माढव्य को राजधानी भेजने आदि कार्यों में उसकी दुर्बलताएँ व्यंजित हुई हैं। अपनी परिणीता पत्नी का तिरस्कार एवं त्याग के कारण दुष्यन्त का चरित्र गिर जाता है, पर दुर्वासा के शाप के कारण उसका काला धब्बा मिट जाता है। उसका चरित्र इस घटना के कारण परमोज्ज्वल होकर पूर्णरूप से निखर जाता है। कवि ने वियोग की ताप में दुष्यन्त को जला कर उसके वासनात्मक कलुष को निःशेष कर दिया है और उसका अन्तःकरण पवित्र होकर श्वेतकमल की भांति प्रोज्ज्वल हो उठता है। वह शकुन्तला के विरहताप में झुलसते हुए भी अपने धर्म एवं कर्तव्य का पूरा ध्यान रखता है । राजा सन्ततिविहीन धर्मबुद्धि नामक वणिक् की मृत्यु का समाचार पाकर उसके धन को राजकोष में न मिलाकर उसकी विधवा गर्भवती पत्नी को समर्पित कर देता है। राज्यभर में वह इस बात की घोषणा करा देता है-येनयेन वियुज्यन्ते प्रजास्निग्धेनबन्धुना । स स पापाहते तासां दुष्यन्त इति धुष्यताम् ॥ ___ इस घोषणा के द्वारा उसकी कर्तव्यपरायणता का ज्ञान होता है। अन्त में राजा का चरित्र अत्यन्त स्वच्छ एवं पवित्र हो जाता है। सर्वदमन को देखते ही उसका वात्सल्य स्नेह उमड़ पड़ता है और वह स्नेह में निमग्न हो जाता है। शकुन्तला पर दृष्टि पड़ते ही वह पश्चात्ताप से पिघल कर उसके चरणों पर गिर पड़ता है जिससे उसकी मूक महानता मुखरित हो उठती है। मारीच के आश्रम के पवित्र वातावरण में दुष्यन्त का प्रेम स्वस्थ एवं पावन हो जाता है और शकुन्तला के अश्रुओं को पोंछते हुए वह स्वयं अपने पापों का प्रक्षालन कर लेता है। दुष्यन्त उच्चकोटि का शासक है एवं उसमें कर्तव्यपरायणता, प्रजाप्रेम, लोभ का अभाव-ये तीन गुण विद्यमान हैं। प्रथम अंक में हाथियों का उपद्रव सुनते ही लड़कियों से विदा लेकर तुरत उसको दण्ड देने के लिए सन्नद्ध हो जाने एवं दो तपस्वियों द्वारा तपोवन की रक्षा के लिए बुलाये जाने पर उसके इस कथन में-'गच्छतां भवन्ती, अहमनुपदमागत एव'-उसकी कर्तव्यपरायणता झलकती है। शकुन्तला के विरहताप से दग्ध होने पर भी नित्यप्रति राजकाज में भाग लेना तथा रोज मन्त्रियों के कार्य का निरीक्षण किये बिना कोई आज्ञा प्रसारित न करना, उसके वास्तविक शासक होने के उदाहरण हैं । वह स्वभाव से अवित्कथन है। राक्षसों का संहार कर मार्ग में आते समय इन्द्र के सारथी मातलि द्वारा अपने पौरुष एवं विजय की प्रशंसा सुन कर भी राक्षसों की पराजय का सारा श्रेय इन्द्र को देता है और उसमें अपना तनिक भी योग नहीं मानता। इस दृष्टि से दुष्यन्त अपना आदर्श व्यक्तित्व उपस्थित करता है । शकुन्तला-शकुन्तला इस नाटक की नायिका है। महाकवि ने उसके शीलनिरूपण में अपनी समस्त प्रतिभा एवं शक्ति को लगा दिया है। जिस सजगता के साथ
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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