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अभिज्ञान शाकुन्तल]
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[अभिज्ञान शाकुन्तल
उदात्तता से युक्त हैं, किन्तु उनमें मानवोचित दुर्बलताएं भी दिखाई गयी हैं, जिससे वे काल्पनिक लोक के प्राणी न होकर भूतल के जीव बने रहते हैं ।
दुष्यन्त-राजा दुष्यन्त 'शकुन्तला नाटक' का धीरोदात्त नायक है। कवि ने इसके चरित्र की अवतारणा में अत्यन्त सावधानी एवं सतर्कता से काम लिया है। इसका व्यक्तित्व बहुमुखी है। वह राजा, प्रेमी, विवेकवादी तथा हृदयवादी दोनों ही रूपों में चित्रित किया गया है। दुष्यन्त इस नाटक में दो रूपों में चित्रित है-आदर्शराजा एवं आदर्श-मनुष्य । उसका व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक एवं प्रभावशाली है । स्वयं प्रियंवदा ने उसकी गम्भीर आकृति एवं मधुर वाणी की प्रशंसा की है-'दुरवगाहगम्भीराकृतिमधुरमालापनप्रभुत्वदाक्षिण्यं विस्तारयति' पृ० ५४। वह वीर तथा उत्साही है । मृगया से अमित उसके शरीर का जिस प्रकार सेनापति द्वारा वर्णन किया गया है वह उसके शारीरिक सुगठन, परिश्रमशीलता एवं बलिष्ठता का परिचायक है । (शकुन्तला २१४)। 'अनवरतधनुस्फिालनरवा (पृ० ९६), नगरपरिष प्रांशुबाहुः (पृ० १२३ ) उपर्युक्त वाक्यों से उसकी शरीर-सम्पत्ति का ज्ञान होता है । राजा दुष्यन्त वीर है और उसकी वीरता का उपयोग सद्कार्यों में होता है। वह अपनी शारीरिक शक्ति के द्वारा तपोवन की रक्षा करता है तथा इनके शत्रु कालनेमिवंश के राक्षसों का दमन करता है। वह उत्साही तथा वीरता की मूर्ति है। इन्द्र का सारथी मातलि जब माढव्य पर आक्रमण करता है तो उसकी करुण पुकार सुनकर वह शीघ्र ही धनुष-बाण लेकर उसकी रक्षा के लिए उद्यत हो जाता है। इन्द्र के द्वारा साहाय्य के लिए बुलाया जाना उसकी वीरता की ख्याति एवं महत्त्व का परिचायक है।
वह अत्यन्त मधुरभाषी है। प्रियंवदा ने उसके मधुर भाषण की प्रशंसा की है। जब वह लड़कियों से विदा लेता है (प्रथम अंक में ) तो अपने कथन से उनको आकृष्ट कर लेता है-'दर्शनेनैव भवतीनां सम्भूत सत्कारोऽस्मि' पृ० ७९ । राजा वीर होते हुए भी विनयी है। "आश्रमवासी मुनिकुमारों के प्रति होने वाले शिष्ट व्यवहार में, अनुसूइया और प्रियंवदा से होने वाले वार्तालाप में, मातलि द्वारा प्रशंसा करने पर इन्द्र के प्रति व्यक्त किये गए सम्मान एवं कृतज्ञतासूचक शब्दों में दुष्यन्त के हृदय की विनयशीलता उमड़-सी पड़ी है।" संस्कृत नाटक-समीक्षा पृ० ३६ ।
राजा धर्मभीरु है तथा राजा के रूप में वर्णाश्रमधर्म की रक्षा को ही अपना परम कत्तंव्य स्वीकार करता है। प्रारम्भ में वह मृगयाप्रिय वीर व्यक्ति के रूप में दिखाई पड़ता है। उसकी मृगया-सम्बन्धी मान्यताएं मर्यादित हैं। ज्योंही उसके कान में यह बात जाती है कि 'राजन् ! आश्रममृगोऽयं न हन्तव्यो न हन्तव्यः'-त्योंही वह अपनी प्रत्यंचा ढीली कर लेता है। ऋषि-मुनियों के प्रति उसके मन में असीम सम्मान एवं श्रद्धा का भाव है। आश्रम में प्रवेश करते ही उसके दर्शन से वह अपने को धन्य मानता है-'पुण्याश्रमदर्शनेन तावदात्मानं पुनीमहे'। वह आश्रम में अपने सभी वस्त्राभूषणों को उतार कर विनीत देष में प्रवेश करता है, इससे उसकी आश्रम के प्रति भक्ति एवं पूज्य भावना प्रदर्शित होती है। वह शारव एवं शारदत को देख