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________________ बुद्धचरित ] ( ३०७ ) [बूलर जे० जी० प्रवेश कर रहा है। लुम्बिनी के वन में सिद्धार्थ का जन्म होता है। उत्पन्न बालक ने यह भविष्यवाणी की कि मैं 'जगत के हित के लिए तथा ज्ञान अर्जन के लिए जन्मा हूँ।' द्वितीय सर्ग-कुमार की मनोवृत्ति को देखकर राजा ने अपने राज्य को अत्यन्त सुखकर बनाकर उनके मन को (सिद्धार्थ को ) विलासिता की ओर लगाना चाहा तथा वन में चले जाने के भय से उन्हें सुसज्जित महल में रखा । तृतीय सर्गउद्यान में एक वृद्ध, रोगी एवं मुर्दे को देखकर कुमार के मन में वैराग्य की उत्पत्ति होती है। इसमें उनकी वैराग्य-भावना का वर्णन है [ दे० अश्वघोष ] । चतुर्थ सर्गनगर एवं उद्यान में पहुंच कर सुन्दरी स्त्रियों द्वारा कुमार को मोहने के प्रयत्न पर कुमार का उनसे प्रभावित न होना । पंचम सर्गः-वनभूमि देखने के लिए कुमार का गमन तथा वहां उन्हें एक श्रमण का मिलना। नगर में प्रवेश करने पर कुमार का गृह-त्याग का संकल्प एवं महाभिनिष्क्रमण । षष्ठ सर्ग-कुमार द्वारा छन्दक को लौटाया जाना। सप्तम सर्ग-गौतम का तपोवन में प्रवेश तथा कठोर तपस्या में संलग्न होना। अष्टम सर्ग-कथक नामक घोड़े पर छन्दक का कपिलवस्तु लौटना, कपिलवस्तुवासियों तथा यशोधरा का विलाप। नवम सर्ग-राजा द्वारा कुमार का अन्वेषण तथा कुमार का नगर न लौटना । दशम सर्ग-बिम्बसार का कुमार को कपिलवस्तु लौटने का आग्रह करना । एकादश सगं-राजकुमार का राज्य एवं सम्पत्ति की निन्दा करना एवं नगर में जाने से इन्कार करना । द्वादश सर्ग-राजकुमार का अराड मुनि के आश्रम में जाना तथा अराड का अपनी विचारधारा का प्रतिपादन करना जिसे मानकर गौतम के मन में असंतोष होना। तत्पश्चात् कठोर तपस्या में लग जाना तथा नन्दबाला से पायस की प्राप्ति । त्रयोदश सर्ग-मार (काम) का बुद्ध की तपस्या में बाधा डालना तथा उसे पराजित होना। चतुदंश सर्ग में गौतम को बुद्धत्व की प्राप्ति । शेष सर्गों में धर्मचक्र प्रवर्तन तथा बुद्ध का अनेक शिष्यों को दीक्षित करना, पिता-पुत्र का समागम, बुद्ध के सिद्धान्तों एवं शिक्षा का वर्णन तथा निर्वाण की प्रशंसा की गयी है । बुद्धचरित में काव्य के माध्यम से बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार किया गया है। विशुद्ध काव्य की दृष्टि से प्रारम्भिक पांच सग, अष्टम एवं त्रयोदश सगं के कुछ अंश अत्यन्त सुन्दर हैं। इसका हिन्दी अनुवाद सूर्यनारायण चौधरी ने किया है। बूलर जे०जी०-जर्मनी के प्राच्यविद्या-विशारद । इनका जन्म जर्मनी में १९ जुलाई १८३७ को हुआ था। इनके पिता एक साधारण पादरी थे जो हनोवर राज्य के अन्तर्गत वोरलेट नामक ग्राम के निवासी थे। पादरी की सन्तान होने के कारण शैशवकाल से ही ये धार्मिक रुचि के व्यक्ति हुए । उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए ये गार्टिजन विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए जहां उन्होंने संस्कृत के . अनूदित अन्यों का अध्ययन किया। इन्होंने १८५८ ई० में डाक्ट्रेट की उपाधि प्राप्त की और भारतीय विद्या के अध्ययन में निरत हुए । आर्थिक संकट रहने पर भी अपनी ज्ञानपिपासा के उपशमन के लिए इन्होंने बड़ी लगन के साथ भारतीय
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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