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________________ ( ३०८) [ब्रह्मगुप्त हस्तलिखित पोथियों का खोजकार्य प्रारम्भ किया। इस कार्य के लिए वे पेरिस, संदन एवं आक्सफोर्ड के इण्डिया आफिस स्थित विशाल ग्रन्थागारों में रखी गयी सामग्रियों का आलोड़न करने के लिए गये। संयोगवश, इन्हें लंदन में मैक्समूलर का साक्षात्कार हुआ और इन्हें इस कार्य में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। लन्दन में ये विंडसर के राजकीय पुस्तकालय में सह-पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए तथा अन्ततः गार्टिजन विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में सह-पुस्तकाध्यक्ष के रूप में इनकी नियुक्ति हुई। भारतीय विद्या के अध्ययन की उत्कट अभिलाषा के कारण ये भारत आए और मैक्समूलर की संस्तुति के कारण बम्बई के तत्कालीन शिक्षा विभाग के अध्यक्ष हावंड महोदय ने इन्हें बम्बई शिक्षा-विभाग में स्थान दिया, जहां ये १८६३ ई. से १८८० तक रहे। विश्वविद्यालय का जीवन समाप्त करने के बाद इन्होंने लेखनकार्य में अपने को लगाया और 'ओरिएण्टल ऐंड ऑक्सीडेंट' नामक पत्रिका में भाषाविज्ञान तथा वैदिकशोध-विषयक निबन्ध लिखने लगे। इन्होंने 'बम्बई संस्कृत-सीरीज' की स्थापना की और वहाँ से 'पंचतन्त्र,' 'दशकुमारचरित' तथा 'विक्रमांकदेवचरित' का सम्पादन कर उन्हें प्रकाशित कराया। इन्होंने १८६७ ई० में सर रेमांडवेस्ट नामक विद्वान् के सहयोग से 'डाइजेस्ट आफ हिन्दू ला' नामक पुस्तक का प्रणयन किया। इन्होंने संस्कृत हस्तलिखित पोषियों की खोज का कार्य अक्षुण्ण रखा और १८६८ ई० में एतदथं शासन की ओर से बंगाल, बम्बई और मद्रास में संस्थान खुलवाया । डॉ. कीलहान, बूलर, पीटर्सन, भाण्डारकर एवं बर्नेल प्रभृति विद्वान भी इस कार्य में लगे । बूलर को बम्बई शाखा का अध्यक्ष बनाया गया। बूलर ने लगभग २३०० पोषियों को खोजकर उनका उद्धार किया। इनमें से कुछ पोथियो एलिफिंसटन कालेज के पुस्तकालय में रखी गयीं, कुछ बलिन विश्वविद्यालय में गयीं तथा कुछ को इण्डिया ऑफिस लाइब्रेरी, लंदन में रखा गया । इन्होंने १८८७ ई० में लगभग ५०० जैन ग्रन्थों के आधार पर जर्मन भाषा में जैनधर्म-विषयक एक ग्रन्थ की रचना की जिसे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई। अनेक वर्षों तक अनुसंधान कार्य में निरत रहने के कारण इनका स्वास्थ्य गिरने लगा, फलतः ये जलवायु-सेवन के लिए वायना (जर्मनी) चले गए। वहां वायना विश्वविद्यालय में भारतीय साहित्य एवं तत्त्वज्ञान के अध्यापन का कार्य इन्हें मिला.। वहाँ इन्होंने १८८६ ई० में 'ओरिएंटल इस्टिट्यूट' की स्थापना की और 'ओरिऐंटल जनल' नामक पत्रिका का प्रकाशन किया। इन्होंने तीस विद्वानों के सहयोग से 'ऍन्साइक्लोपीडिया आफ इन्डो-आर्यन रिसर्च' का संपादन करना प्रारम्भ किया जिसके केवल नौ भाग प्रकाशित हो सके । अपनी मौलिक प्रतिभा के कारण श्रीबूलर विश्वविद्युत विद्वान् हो गए। एडिनवरा विश्वविद्यालय ने इन्हें डाक्ट्रेट की उपाधि से विभूषित किया। अप्रैल १८९८ ई० में कैस्टैंस झील में नौकाविहार करते हुए ये अचानक जल-समाधिस्थ हो गए । उस समय इनकी अवस्था ६१ वर्ष की थी। ब्रह्मगुप्त-गणित-ज्योतिष के सुप्रसिद्ध आचार्य । इनका जन्म ५९८ ई० में पंजाब के 'भिननालका' स्थान में हुआ था। इन्होंने 'ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त' एवं 'खण्ड-खाद्यक'
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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