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बिल्हण]
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[बुढचरित
पाट्यार पुस्तकालय में उपलब्ध है। इसे 'ऋग्वेद' की बाष्कल शाखा का अंश माना गया है जो सम्प्रति अप्राप्य है। इसमें कुल २५ मन्त्र हैं और आत्म-तत्त्व का प्रतिपादन ही इसका प्रधान लक्ष्य है।
आधारग्रंथ-वैदिक संशोधन मण्डल, पूना से अष्टादश उपनिषद् के अन्तर्गत प्रकाशित ।
बिल्हण-ये काश्मीरी कवि हैं जिन्होंने 'विक्रमांकदेवचरित' नामक ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना की है। इसमें १८ सर्ग हैं तथा कवि के आश्रयदाता विक्रमादित्य के पूर्वजों के शौर्य एवं पराक्रम का वर्णन है। चालुक्यवंशीय राजा विक्रमादित्य षष्ठ दक्षिण के नृपति थे जिनका समय १०७६-११२७ ई० है। ऐतिहासिक घटनाओं के निदर्शन में बिल्हण अत्यन्त जागरूक रहे हैं। ये वैदर्भी मार्ग के कवि हैं। "विक्रमांकदेवचरित' में वीर रस का प्राधान्य है, पर श्रृंगार और करुण रस का भी सुन्दर रूप उपस्थित किया गया है। इसके प्रारम्भिक सात सगों में मुख्यतः ऐतिहासिक सामग्री भरी पड़ी है। आठवें से ग्यारहवें सगं तक राजकुमारी चन्दल देवी का नायक से परिणय, प्रणय-प्रसंग, वसन्त ऋतु का शृङ्गारी चित्र, नायिका का रूप-सौन्दयं तथा
काम केलि आदि का वर्णन है । बारह, तेरह तथा सोलह सर्ग में जलक्रीड़ा, मृगया आदि · का वर्णन तथा चौदहवें एवं पंद्रहवें सर्ग में कौटुम्बिक कलह का उल्लेख है। सत्रहवें
सगं में चोली की पराजय तथा १८३ में कविवंशवृत एवं भारत-यात्रा का वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है। बिल्हण ने राजाओं के यश को फैलाने एवं अपकीर्ति के प्रसारण का कारण कवियों को माना है
लखापतेः संकुचितं यशो यत् यत् कीर्तिपात्रं रघुराजपुत्रः ।
स सर्व एवादिकवेः प्रभावो न कोपनीया कवयः क्षितीन्द्रः ।। इसका सर्वप्रथम प्रकाशन जी० बूलर द्वारा बी० एस० एस० १४, १८७५ ई० में हुआ। हिन्दी अनुवाद के साथ चौखम्बा विद्याभावन से प्रकाशित ।
बुद्धघोष-ये प्रसिद्ध बौद्ध आचार्य हैं जिन्होंने १०. सर्गों में 'पद्यचूड़ामणि' नामक महाकाव्य की रचना की है। ये पालिलेखकों तथा बौधर्म के व्याख्याकारों में महनीय स्थान के अधिकारी हैं। इन्होंने 'विसुद्धिमग्ग' नामक बौद्धधर्मविषयक ग्रन्थ का प्रणयन किया है तथा 'महावंश' और 'अट्ठकथायें भी इनके नाम पर प्रचलित हैं। ये ब्राह्मण से बोर हुए थे। इनका समय ४०० ई० के आसपास है। इनके एक ग्रन्थ का चीनी अनुवाद ४०८ ई० में हुआ था।
बुद्धचरित-इस महाकाव्य के रचयिता बौद्ध कवि अश्वघोष हैं। सम्प्रति मूल ग्रन्थ १४ सौ तक ही उपलब्ध है किन्तु इसमें २८ सर्ग थे जो चीनी एवं तिम्बती अनुवादों में प्राप्त होते हैं। इसका प्रथम सर्ग अधूरा ही मिला है तथा १४ वें संग के ३१ श्लोक तक के ही अंश अश्वघोष कृत माने जाते हैं। प्रथम सर्ग में राजा शुद्धोदन एवं उनकी पत्नी का वर्णन है । मायादेवी ( राजा की पली) ने एक रात को सपना देखा कि एक श्वेत मजराज उनके शरीर में