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________________ जानकी चरितामृत ] [जैन दर्शन जानकी चरितामृत (महाकाव्य)-इस महाकाव्य के रचयिता श्रीरामसनेहीदास वैष्णव कवि हैं। इसका रचनाकाल १९५० ई० एवं प्रकाशनकाल १९५७ ई० है । यह महाकाव्य १०८ अध्यायों में विभक्त है जिसमें सीता के जन्म से लेकर विवाह तक की कथा वर्णित है। सम्पूर्ण काव्य संवादात्मक शैली में रचित है। इसमें प्रसादगुण की प्रधानता है अहिंसायाः परो धर्मो नास्तिकोऽपि जगत्त्रये । ___नाधर्मोऽप्यस्ति हिंसाया अधिकप्रियबान्धवः ॥ जीमूतवाहन-ये बंगाल के प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार हैं। इनके तीन अन्य प्रकाशित हो चुके हैं-'कालविवेक', 'व्यवहारमातृका' तथा 'दायभाग' । इनका समय १०९० से ११३० ई. के मध्य माना जाता है । लेखक ने अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा है । ये राढा नामक स्थान के निवासी तथा परिभद्र कुल में उत्पन्न हुए थे। 'कालविवेक' में वर्णित विषयों की सूची इस प्रकार है--ऋतु, मास, धार्मिक-क्रिया-संस्कार के काल, मलमास, सौर तथा चान्द्रमास में होने वाले उत्सव, वेदाध्ययन के उत्सर्जन तथा उपाकर्म, अगस्त्योदय, चतुर्मास, कोजागर, दुर्गोत्सव, ग्रहण आदि का विवेचन । 'व्यवहारमातृका' का प्रतिपाद्य है व्यवहार विधियों का विवेचन । इनके तृतीय ग्रन्थ 'दायभाग' की श्रेष्ठता असंदिग्ध है। इसमें हिन्दू कानूनों का विस्तारपूर्वक विवेचन है और विशेषतः रिक्थ, विभाजन, स्त्रीधन तथा पुनर्मिलन का अधिक विस्तार के साथ वर्णन किया गया है । दायभाग में पुत्रों को पिता के धन पर जन्मसिद्ध अधिकार नहीं दिया गया है, अपितु पिता के मरने या संन्यासी होने या पतित हो जाने पर ही सम्पत्ति पर पुत्र का अधिकार होने का वर्णन है। पिता की इच्छा होने पर ही उसके एवं उसके पुत्रों में धन का विभाजन संभव है। इसमें यह भी बताया गया है कि पति की मृत्यु के पश्चात् विधवा का अधिकार न केवल पति के धन पर अपितु उसके भाई के संयुक्त धन पर भी हो जाता है। इसमें अनेक विचार 'मिताक्षरा' के विपरीत व्यक्त किये गए हैं। [ 'मिताक्षरा' के लिए दे० विज्ञानेश्वर ] आधारग्रन्थ-धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग-१ (हिन्दी अनुवाद) डॉ. पा. वा० काणे। जैन दर्शन-भारतीय दर्शन के अन्तर्गत एक तत्वज्ञान जिसका सम्बन्ध जैनियों या जैनधर्मानुयायियों से है। 'जिन' के अनुयायी को जैन कहा जाता है। 'जिन' का अर्थ है विजेता, जो निम्नकोटि के स्वभाव या राग-द्वेष को जीत कर निर्वाण प्राप्त कर के या सर्वोच्च सत्ता की उपलब्धि करके उसे 'जिन' कहते हैं। महावीर जिन या वर्धमान बैनियों के अन्तिम या चौबीसवें तीर्थकर थे और यह उपाधि उनको उनके अनुयायियों के द्वारा प्राप्त हुई थी। जैनमत शन्द इस धर्म के नैतिक आधार का द्योतक है । अर्थात् इससे विदित होता है कि जैनधर्म का मुख्याधार आचारनिष्ठा है। जैनधर्म के प्रचारक सिडों को तीर्थकर कहा जाता है जिनकी संख्या २४ है। इसके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे जिनका समय प्रागैतिहासिक काल है। इस मत के अन्तिम तीर्थंकर का समय ६५६ १३ सं० सा०
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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