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दिया। इतना ही नहीं इन तीनों शवों को कई दिनों तक यथावत् लटकाए रखा गया। बाद में धार्मिक भावनाओं को आहत करने के लिए अंग्रेजों ने लाला जी के शव को भंगियों द्वारा दफन करवाया और मिर्जा बेग के शव को इस्लामिक परम्परा के विरुद्ध अग्नि में जला दिया गया।
स्वतंत्रता की बलिवेदी पर लाला जी और मिर्जा बेग ने अपने प्राणों की आहुति देकर अमर सेनानियों के इतिहास में अपने नाम को अमर कर दिया। इन स्वतंत्रता के दीवानों ने जहां फांसी का फंदा हंसते हुए चूमा था उसी स्थान पर नगर पालिका हांसी ने 22 जनवरी 1961 को “अमर शहीद हुकुमचंद जैन पार्क" की स्थापना की। लाला जी की आदमकद प्रतिमा भी यहां लगाई गई है। हुक्मीचन्द जी महाराज (आचार्य)
स्थानकवासी सम्प्रदाय में कोटा सम्प्रदाय के एक तपस्वी और क्रियानिष्ठ आचार्य।
आपका जन्म शेखावटी के टोडा नामक गांव में हुआ। कोटा सम्प्रदाय के वरिष्ठ विद्वान मुनिवर श्री लालचन्द जी महाराज के सान्निध्य में आपने वि.सं. 1809 में आर्हती दीक्षा अंगीकार की। कुछ समय पश्चात् गुरु की आज्ञा प्राप्त कर तप और संयम की विशिष्ट आराधना के लिए आपने पृथक् विचरण प्रारंभ किया। आपकी तपःरुचि अद्भुत थी। आपने 21 वर्षों तक बेले-बेले पारणा किया। केवल तेरह द्रव्यों के उपयोग का आगार रखकर शेष समस्त द्रव्यों का आपने आजीवन के लिए त्याग कर दिया था। सर्दियों में आप एक चद्दर का उपयोग करते थे और गर्मियों में सूर्य की आतापना लिया करते थे।
तप के साथ ही जपनिष्ठा भी आपकी स्तुत्य थी। प्रतिदिन 2000 बार नमोत्थुणं के पाठ द्वार आप अरिहंत प्रभु की स्तुति करते थे। शेष समय में आगमों की प्रतिलिपि का लेखन करते थे। आपकी हस्तलिखित 19 आगमों की प्रतियां आज भी सुरक्षित हैं।
श्रेष्ठ और ज्येष्ठ आचार के पालक आचार्य श्री का स्वर्गवास 1918 में जावद ग्राम में समाधि संथारे पूर्वक हुआ। आपके नाम से वर्तमान में सम्प्रदाय प्रचलित है जिसमें अनेक विद्वान और आचार निष्ठ मुनिराज
हेमचन्द्र आचार्य (कलिकाल सर्वज्ञ)
- जैन परम्परा के उद्भट विद्वान आचार्य। वी.नि. की 17वीं शताब्दी में आचार्य हेमचन्द्र ने गुजरात प्रान्त को जैन धर्म का केन्द्र बना दिया था। अपनी बहुमुखी प्रतिभा और विलक्षण विद्वत्ता के कारण आचार्य हेमचन्द्र 'कलिकाल सर्वज्ञ' गुण निष्पन्न उपनाम से सुख्यात हुए। आचार्य हेमचन्द्र के जीवन सम्बन्धी परिचय रेखाएं निम्न प्रकार से हैं
___ आचार्य हेमचन्द्र का जन्म गुजरात प्रान्त के धन्धूका नगर में हुआ। वैश्य कुल में मोढ़ वंश अग्रणी चाचिग उनके पिता थे। उनकी माता का नाम पाहिनी था। उनका जन्म का नाम चांगदेव था। आठ वर्ष की अवस्था में चांगदेव ने चन्द्रगच्छ के मुनि देवचन्द्र सूरि के पास आहती प्रव्रज्या धारण की। चांगदेव बाल्यावस्था से ही अपूर्व मेधा सम्पन्न थे। कुछ ही वर्षों की संयम पर्याय में वे जैन-जैनेतर दर्शनों के पारगामी विद्वान बन गए। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं पर असाधारण आधिपत्य उन्होंने स्थापित किया। उन्हें सर्वविध समर्थ और सुयोग्य देखकर श्रीसंघ ने उनको आचार्य पद प्रदान किया। आचार्य पदारोहण के समय उनकी अवस्था मात्र इक्कीस वर्ष थी। आचार्य पद प्रदान के समय गुरु ने उन्हें 'हेमचन्द्र' नाम प्रदान किया।
आचार्य हेमचन्द्र ने अपने नवनवोन्मेषी विपुल साहित्य संरचना तथा उपदेशों द्वारा उस युग की धारा ... 724 ...
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