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पांच सौ - वां मुनि लघुवय था । उस पर स्कन्दक का अनुराग भाव प्रगाढ़ था । अपनी आंखों के समक्ष स्कन्दक उसे मरता हुआ नहीं देख सकते थे । उन्होंने पालक से कहा कि वह पहले उन्हें कोल्हू में पेले । वे लघुमुनि की मृत्यु देख नहीं पाएंगे।
पर दुष्ट पालक तो स्कन्दक को अधिकाधिक मानसिक और शारीरिक कष्ट देना चाहता था । उसने अट्टहास करते हुए पहले लघुमुनि को कोल्हू में पेल दिया। उक्त दृश्य देखकर स्कन्दक का अस्तित्व विचलित बन गया। उन्होंने प्रतिज्ञा की कि यदि उनकी तपस्या का कोई फल है तो वे पालक सहित पूरे दण्डक देश को दण्ड देने वाले बनें ।
स्कन्दक की बात को असुना करते हुए पालक ने उन्हें भी कोल्हू में पेल दिया । देह त्याग कर स्कन्दक निदानानुसार अग्निकुमार देव बने । अवधिज्ञान से पूरी बात जानकर उन्होंने दण्डक देश पर अग्नि वर्षा करके उसे भस्मीभूत कर दिया। पूरे जनपद में मात्र पुरन्दरयशा जीवित बची जिसे एक देव ने भगवान मुनिसुव्रत की सन्निधि में पहुंचा दिया था ।
दण्डक देश जलकर नष्ट हो गया और वह स्थान दण्डकारण्य कहलाया । यह वही दण्डकारण्य था जहां रामायणानुसार श्री राम, सीता और लक्ष्मण आए थे तथा जहां लक्ष्मण के हाथ से अनायास ही शूर्पणखां के पुत्र शंबूक का वध हो गया था । - त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व 7/ निशीथ चूणि
(ख) स्कंदक (परिव्राजक )
स्कंदक अथवा खंधक परिव्राजक भगवान महावीर का समकालीन था । वह गर्दभाली परिव्राजक का शिष्य था और श्रावस्ती नगरी में रहता था। किसी समय पिंगल नामक निर्ग्रन्थ ने उससे कुछ प्रश्न पूछे, जिनके उत्तर वह नहीं दे सका। इससे वह अपने मन में बड़ा खिन्न हुआ। उन्हीं दिनों श्रावस्ती नगरी में भगवान महावीर पधारे । स्कंदक ने उक्त प्रश्नों का समाधान भगवान से प्राप्त किया और वह इतना आल्हादित हुआ कि परिव्राजक प्रव्रज्या से आर्हती प्रव्रज्या में प्रविष्ट हो गया । विपुलगिरि से अनशन सहित पंडित मरण करके बारहवें स्वर्ग में गया । भवान्तर में महाविदेह से सिद्ध होगा । - भगवती सूत्र 2/1
स्कन्दिलाचार्य
वी. नि. की नवम शताब्दी में हुए एक अनुयोग-धर आचार्य । वर्तमान में उपलब्ध आगमों की वाचना उनके ही नेतृत्व में मथुरा नगरी में हुई थी । श्रुत संपदा के संरक्षक के रूप में वे अर्चित-वन्दित हैं।
नन्दी सूत्र स्थविरावली के अनुसार आचार्य ब्रह्मदीपक सिंह के पश्चात् स्कन्दिलाचार्य का क्रम है । संभवतः वे ब्रह्मदीपक सिंह के ही शिष्य थे। उनके दीक्षा गुरु के लिए स्थविर सिंह नामोल्लेख हुआ है जो ब्रह्मद्वीपिका शाखा के स्थविर थे ।
स्कन्दिलाचार्य का जन्म मथुरा नगरी में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता का नाम मेघरथ और माता का नाम रूपसेना था । मेघरथ और रूपसेना जैन धर्म के प्रति सुदृढ़ आस्थावान थे । आर्य स्कन्दिल सिंह स्थविर से आर्हती प्रव्रज्या अंगीकार कर आगम साहित्य का गंभीर अध्ययन किया। क्रमशः वे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए।
वी.नि. की नवमी शताब्दी के पूर्वार्ध में द्वादश वर्षीय भीषण दुष्काल पड़ा। साधु मर्यादा के अनुकूल आहार -प्राप्ति के अभाव में अनेक श्रुतधर मुनि कालधर्म को प्राप्त हो गए । दुष्काल की परिसमाप्ति पर स्कन्दिलाचार्य ने श्रुत संरक्षा के लिए मथुरा नगरी में श्रमणों का महासम्मेलन आहूत किया। सम्मेलन में
••• जैन चरित्र कोश
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