________________
पदार्पित श्रुतधर मुनियों ने स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में स्मृत पाठों के आधार पर श्रुत का संकलन किया। आगम वाचना का यह समय वी.नि. 827 से 840 के मध्य का माना जाता है। स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में होने से इस आगम वाचना को 'स्कंदिली वाचना' और मथुरा नगरी में होने के कारण ‘माथुरी वाचना' के नाम से जाना जाता है।
श्रुत संरक्षा का महायज्ञ स्कंदिलाचार्य के नेतृत्व में संपन्न हुआ। लगभग उसी अवधि में आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी नगरी में भी श्रुत संकलन का महायज्ञ रचा गया। आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में होने के कारण उसे 'नागार्जुनीय वाचना' की संज्ञा मिली और वल्लभी नगरी में होने के कारण उसे 'वल्लभी वाचना' नाम से भी जाना जाता है।
नन्दी सूत्र स्थविरावली में स्पष्ट उल्लेख है कि उस समय अनुयोगधर आचार्य स्कन्दिल का विमल सुयश पूरे भारतवर्ष में व्याप्त था।
स्कन्दिलाचार्य का शासन काल वी.नि. 827 से 840 तक माना जाता है। -नन्दी सूत्र स्थविरावली स्तिमित इनका पूर्ण परिचय गौतमवत् है। (देखिए-गौतम)
-अन्तगड सूत्र, प्रथम वर्ग, पंचम अध्ययन स्थूलभद्र (आचार्य)
पाटलिपुत्र नरेश महाराज धननन्द के महामंत्री शकडाल के पुत्र और पट्टपरम्परा के आठवें पट्टधर आचार्य। पौराणिक जैन साहित्य के पष्ठों पर उनके महनीय चरित्र का महिमापर्ण संगान हआ है। वे जब सीढ़ियां तलाश ही रहे थे तब उस युग की अनन्य सुंदरी और राजनर्तकी कोशा के प्रेमपाश के बन्दी बन गए। घर और परिवार को भूलकर बारह वर्षों तक उसी के महल में रहे। जब उनके पिता महामंत्री शकडाल वररुचि के षड्यंत्र के निशाने पर आ गए और अपनी स्वामिभक्ति की परीक्षा के लिए उन्होंने स्वेच्छया आत्मबलिदान दे दिया तो राजा ने स्थूलभद्र को बुलाया और उन्हें महामंत्री पद देने का प्रस्ताव किया। स्थूलभद्र पितृ-मृत्यु से विरक्त हो चुके थे। राजा के प्रस्ताव को ठुकरा कर वे आचार्य संभूतविजय के पास दीक्षित हो गए। उग्र संयम का पालन करने लगे। जब उनकी साधना में परिपक्वता आ गई तो उन्होंने कोशा के महल पर वर्षावास की अनुमति गुरु से मांगी। गुरु से अनुमति मिलने पर उन्होंने कोशा के महल पर वर्षावास किया। कोशा चारों ही मास मुनि को अपने अनुकूल बनाने के लिए प्रयास करती रही, पर सफल न हुई। अंत में स्थूलभद्र ने उसे ही बदल डाला और श्रावक धर्म की दीक्षा दे दी। स्थूलभद्र गुरु के पास लौटे तो गुरु ने उनके कार्य की महान अनुशंसा करते हुए उन्हें गले से लगा लिया।
__ संभूतविजय का एक अन्य शिष्य था जो एक खूखार सिंह की गुफा पर वर्षावास करके लौटा था और उसने अपनी साधना से सिंह जैसे हिंसक जानवर को अहिंसक बना दिया था, उसे गुरु का यह व्यवहार चुभा। उसे लगा कि स्थूलभद्र को जो सम्मान दिया गया है वह सम्मान उसे नहीं, मुझे मिलना चाहिए था। वह मन मसोस कर रह गया और दूसरे वर्ष गुरु के इन्कार करने पर भी वह कोशा के महल पर वर्षावास करने पहुंच गया। पर कोशा का रूप उसके जी का जंजाल बन गया। कोशा को पाने के लिए उसने साध्वाचार की समस्त मर्यादाएं खण्डित कर दीं। कोशा की बुद्धिमत्ता से ही आखिर वह समझ सका। गुरु के पास लौटकर उसने अपने अन्यथा चिंतन और आज्ञा-उल्लंघन के लिए क्षमा मांगी और अतिचारों की शुद्धि कर पुनः संयमारूढ़ हुआ। ...706 ..
-... जैन चरित्र कोश ....