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हंसी का रहस्य पूछा। शूकरी-शिशु ने कहा, राजन् ! तुम विलम्ब से आए और कुछ ही क्षण में मेरी मृत्यु होने वाली है। यहां से मरकर फलां स्थान पर मैं मृग-शावक के रूप में जन्म लूंगी और तभी तुम्हें हंसी का रहस्य बताऊंगी। कहकर शूकरी-शिशु का निधन हो गया।
निर्दिष्ट समय पर मृगी ने शावक को जन्म दिया। राजा ने वहां पहुंचकर उससे हंसी का रहस्य पूछा। शावक ने कहा, यहां भी मैं पलभर को हूँ। यहां से मरकर मैं तुम्हारे प्रधान की पत्नी के उदर से पुत्री रूप में जन्म लूंगी, वहीं पर हंसी का रहस्य स्पष्ट करूंगी। कहकर शावक के प्राण निकल गए।
चकित, विस्मित राजा के पास प्रतीक्षा के अतिरिक्त अन्य उपाय नहीं था। उसने अपनी मर्यादा के अनुरूप प्रधान की पत्नी को अपनी धर्मबहन बना लिया। जब उसने पुत्री को जन्म दिया तो दसवें दिन राजा पुत्री को देखने प्रधान के घर गया। प्रधान की पुत्री को गोद में लेकर उसने अपना प्रश्न दोहराया। नवजात कन्या ने कहा, राजन् ! अभी थोड़ी प्रतीक्षा और कीजिए। जब मैं पन्द्रह वर्ष की हो जाऊंगी और मेरा विवाह होगा तब विवाह-मण्डप में मैं तुम्हें हंसी का रहस्य बताऊंगी।
निराश होकर राजा अपने महल में आ गया। प्रधान ने अपनी पुत्री का नाम मुक्तिप्रभा रखा। जब मुक्तिप्रभा पन्द्रह वर्ष की हो गई तो उसने उसका सम्बन्ध धर्मसेन के पौत्र इन्द्रसेन से कर दिया। विवाह-मण्डप में राजा पहुंचा और उसने मुक्तिप्रभा से मुस्कान का रहस्य पूछा। मुक्तिप्रभा हंसी और बोली, राजन् ! आप इतना कुछ देख चुके हैं, क्या यह सब हंसने योग्य नहीं है। पूर्वजन्म में मैंने जिसे पुत्र रूप में जन्म दिया था, इस जन्म में वही मेरा पति होने जा रहा है। उस क्षण आपको अपनी रानी से आमोद-प्रमोद करते देख कर मुझे जो हंसी आई थी उसका भी एक ऐसा ही कारण था। और वह कारण था, आपकी पत्नी ही पूर्वजन्म में आपकी माता थी। आप जब पांच वर्ष के थे तो आपकी माता का देहान्त हो गया था और उसका जीव ही आपकी वर्तमान रानी है। बस इसी विचार से मुझे हंसी आ गई थी। यदि यह रहस्य उसी क्षण मैं प्रगट कर देती तो आप विश्वास नहीं करते। सत्य की परख के लिए धैर्य और प्रतीक्षा की आवश्यक आपने धैर्य रखा और अपनी जिज्ञासा को जीवित रखा, सो आज आपके पास मेरी बात पर अविश्वास का कोई कारण नहीं होना चाहिए। __सुनकर राजा विस्मित बन गया। उसने उपस्थित जन-समूह के समक्ष पूरा इतिवृत्त कहा। इससे राजा, रानी और इन्द्रसेन मुक्तिप्रभा के साथ ही विरक्त बन गए और उसी दिन संसार का त्याग कर निर्ग्रन्थ साधना पथ पर बढ़ गए। उत्कृष्ट संयम का पालन करके चारों ही जीव सिद्ध गति में गए। सर्वभूति
उन्नीसवें विहरमान तीर्थंकर श्री देवयज्ञ स्वामी के जनक। (देखिए-देवयज्ञ स्वामी) (क) सर्वानुभूति अणगार
भगवान महावीर के एक शिष्य जिन्हें गोशालक ने तेजोलेश्या से भस्म कर दिया था। (देखिए-गोशालक) (ख) सर्वानुभूति अणगार एक तपस्वी अणगार जो निरन्तर मासखमण की तपस्या करते थे। (दखिए-धनपति कुमार)
-विपाक सूत्र, द्वि.श्रु., अ. 6 सर्वार्थ
क्षत्रिय कुण्डग्राम / कुण्डलपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के पिता और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ... जैन चरित्र कोश ...
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