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मोती मांगा। चारों पुत्र और चारों पुत्रवधू परस्पर एक हो गए और बोले कि वे मोती नहीं लौटाएंगे। उन्होंने कहा, पिताजी ! राजा आप पर आंखें मूंद कर विश्वास करता है। उसे ज्ञात ही नहीं होगा कि इतने मोतियों में कोई नकली मोती भी है। फिर भी यदि कभी राजा को संदेह हो गया तो हम चारों पुत्रों में से चोरी का दायित्व कोई एक अपने सिर पर ले लेगा। आप निश्चिंत रहिए। आखिर पारिवारिक दुराग्रह के समक्ष संवेग ने हार में एक नकली मोती पिरो दिया।
एक बार दरबार में विदेशी रत्नपारखी आए। राजा ने अपना मोतियों का हार उन पारखियों के समक्ष परख के लिए रखा। कुशल पारखियों ने तत्क्षण परख लिया कि हार में एक मोती नकली है। उन्होंने राजा को नकली मोती दिखाया। राजा का क्रोध संवेग पर उमड़ा। राजपुरुष संवेग की गिरफ्तारी के लिए पहुंचे। संवेग राजपुरुषों को देखते ही पूरी बात जान गया। उसने अपने पुत्रों और पुत्रवधुओं को एकत्रित करके पूछा, कहो, कौन है जो चोरी का दायित्व अपने ऊपर लेकर राजदण्ड भोगने को तैयार है। संवेग की बात सुनकर सभी के प्राण सूख गए। सभी ने कहा, पिता जी ! आप वृद्ध हो चुके हैं। यह दायित्व आप ही लीजिए। फिर व्यवसाय का उत्तरदायित्व तो आप पर ही है, हमें कौन जानता है ?
संवेग का मन निर्वेद से भर गया। पुत्रों और पुत्रवधुओं के स्वार्थी चेहरे उसके समक्ष प्रगट हो चुके थे। वह राजदरबार में पहुंचा। राजा ने उसे मृत्युदण्ड दिया। पर अपनी वाग्चातुरी से संवेग ने राजा को यह समझा दिया कि उसने असली मोती के स्थान पर नकली मोती क्यों लगाया। इस पर राजा इतना प्रसन्न हुआ कि उसने वह हार ही संवेग को पुरस्कार स्वरूप प्रदान कर दिया। परन्तु संवेग ने वह हार राजा को लौटा दिया
और मोती की सच्ची कथा राजा को सुना दी। साथ ही उसने स्पष्ट कर दिया कि सम्बन्धों की विद्रूपता ने उसके मन में संवेग को जगा दिया है। उसने कहा, महाराज ! अब मैं घर नहीं लौटूंगा। प्रव्रजित होकर आत्मकल्याण करूंगा।
राजा भी विरक्त हो गया। उसी दिन एक मुनि नगर के बाह्य भाग में स्थित राजोद्यान में पदार्पत हुए। राजा और संवेग ने मुनि से प्रव्रज्या धारण की। मुनि का उपदेश सुनकर और पिता को विरक्त देखकर संवेग के पुत्रों और पुत्रवधुओं में भी धर्म निष्ठा जागृत हुई और उन्होंने श्रावक धर्म अंगीकार किया।
राजर्षि और संवेग मुनि चारित्र पर्याय का पालन कर देवलोक में गए। भवान्तर में वे मोक्ष प्राप्त करेंगे। सकडालपुत्र (श्रावक)
उपासकदशांग सूत्र में सकडाल पुत्र का चरित्र अत्यन्त विस्तार से उपलब्ध है। वह पोलासपुर नगर का एक धनी कुंभकार था। उसने बर्तन निर्माण को एक उद्योग का दर्जा दे दिया था और उससे उसने अथाह धन अर्जित कर लिया था। उसके पास तीन कोटि स्वर्णमुद्राएं और दस हजार गायों का एक गोकुल था। उसकी पत्नी का नाम अग्निमित्रा था। पति-पत्नी दोनों ही गोशालक मत के अनुयायी थे। एक दिन जब सकडालपुत्र अपनी अशोकवाटिका में बैठा धर्म चिन्तन कर रहा था तो किसी देव ने उससे कहा कि कल नगर में महामाहन आएंगे, वे त्रिकालदर्शी और भगवान हैं, उसे उनकी सेवा करनी चाहिए। _____सकडालपुत्र ने सोचा कि महामहान तो उसके गुरु गोशालक हैं। देव ने उन्हीं के आगमन की सूचना दी है। दूसरे दिन प्रसन्न चित्त सकडालपुत्र गोशालक के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। पर उसे सूचना मिली कि सहस्राम्रवन में भगवान महावीर पधारे हैं। इस विचार से कि महावीर भी महामाहन ही हैं वह भगवान के दर्शन करने गया। उसे देखकर भगवान ने बीते दिन की बात को प्रगट किया। कहा कि कल देव ...जैन चरित्र कोश ...
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