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ने उसे महामाहन के आगमन की सूचना दी थी। उसने महामाहन से गोशालक का अर्थ समझा था । भगवान द्वारा अपने मन की बात का रहस्योद्घाटन सुनकर सकडालपुत्र बहुत प्रभावित हुआ। उसने विनम्रता से भगवान की बात का समर्थन किया। भगवान ने कहा- अब तो उसे विश्वास हो गया कि देव का संकेत गोशालक के लिए नहीं था। सकडालपुत्र पूर्णतः विश्वस्त हो गया कि महावीर ही महामाहन हैं। उसने सभक्ति भगवान से अपनी कुंभकारापणशाला में विराजने की प्रार्थना की। उसकी प्रार्थना को मान देकर भगवान उसकी कुंभकारापणशाला में विराजित हुए ।
गोशालक नियतिवाद का प्रवर्तक था । उसका सिद्धान्त था - जो होने वाला है वह होता है, पुरुषार्थ व्यर्थ है। सकडालपुत्र भी उसी सिद्धान्त को मानता था । उसमें सत्य दर्शन जागृत करने के लिए भगवान ने उससे पूछा कि ये मिट्टी के बर्तन कैसे बने। सकडालपुत्र ने अपनी मान्यता की रक्षा करते हुए उत्तर दिया कि इन्हें बनना ही था, सो बन गए हैं। महावीर ने पुनः प्रश्न किया कि यदि इन बर्तनों को कोई फोड़ दे तो ! सकडालपुत्र बोला कि वह इन्हें तोड़ने वाले को दण्डित करेगा। भगवान ने कहा- तुम्हारा तो सिद्धान्त है कि जो हो रहा है वह पूर्व- निश्चित है, फिर व्यक्ति का अपराध ही क्या है ? उसे दण्ड क्यों दोगे ?
नियतिवाद की अतार्किकता सकडालपुत्र के समक्ष स्पष्ट हो गई। उसकी प्रार्थना पर भगवान ने उसे सत्य तत्व का बोध दिया। उसने भगवान से बारह श्रावक व्रत अंगीकार कर लिए और पूर्ण निष्ठा से उनका पालन करने लगा । सकडालपुत्र द्वारा धर्म-परिवर्तन की सूचना ने गोशालक को स्तब्ध बना दिया। वह पोलासपुर पहुंचा। सकडालपुत्र के पास गया पर सकडालपुत्र ने उसको गुरु का आदर नहीं दिया। गोशालक ने भेदनीति का सहारा लेकर महावीर की प्रशंसा के पुल बांधे। पर वह सकडालपुत्र से उसकी कुंभकारापणशाला में विश्राम स्थल पाने के सिवा कुछ न पा सका ।
किसी समय रात्रि में सकडालपुत्र पौषधशाला में धर्मचिंतन में रत था। एक देव ने उसकी परीक्षा ली। उसके समक्ष उसके पुत्रों की हत्या कर उनके रक्त को उबालकर सैकडालपुत्र के शरीर पर उंडेला । मानसिक और शारीरिक व्यथा में भी उसे अविचलित देख देव ने उसकी पत्नी अग्निमित्रा को उसके समक्ष उपस्थित किया और उसे मारने को उद्यत हुआ। इस पर सकडालपुत्र सहम गया और पत्नी की रक्षा के लिए उठकर लपका तो एक खम्भे से टकरा गया। देव अन्तर्धान हो गया। शोर सुनकर अग्निमित्रा दौड़कर आई, पूरी स्थिति से परिचित बनकर उसने पति को धैर्य बंधाया और बताया कि घर में सब कुशलता है। यह किसी देव की माया थी
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सकडालपुत्र स्वस्थ बना। मन में शेष पत्नी के प्रति मोह को साधना से निरस्त करने के लिए कृत्संकल्प बना। अन्त में मासिक संलेखना के साथ देहत्याग कर प्रथम स्वर्ग में गया। वहां से महाविदेह में जन्म लेकर सिद्धत्व को उपलब्ध होगा ।
सखा जी
आप दिल्ली के निवासी थे । आप अपने समय के एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व थे। कहा जाता है कि आप बादशाह के वजीर थे । वजारत का परित्याग करके आपने 1550 में लोंकागच्छ में प्रव्रज्या अंगीकार की ।
एक अनुश्रुति के अनुसार जब आप दीक्षा लेने को तत्पर हुए तो बादशाह ने आप से कहा, सखा ! तुम क्यों बनना चाहते हो? इस पर सखा जी ने कहा, बादशाह सलामत ! इस जगत में जो भी जन्म लेता है उसे अवश्यमेव मरना पड़ता है। जन्म और मरण की अनादिकालीन परम्परा के व्यवछेद के लिए मैं दीक्षा जैन चरित्र कोश •••
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