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(10) जंबू, (11) दीहभद्र, (12) पण्डुभद्र। __आचार्य संभूतविजय 42 वर्षों तक गृहवास में रहे। 40 वर्षों तक वे सामान्य मुनि अवस्था में रहे तथा आठ वर्षों तक युगप्रधान आचार्य पद पर रहे। वी.नि. 156 में उनका स्वर्गवास हुआ।
-परिशिष्ट पर्व, सर्ग -8-9 / उपदेश माला, विशेष वृत्ति / नन्दी सूत्र / कल्पसूत्र (क) संवर
जयत्थल नगर के श्रेष्ठी विशाखदत्त का पुत्र, एक दृढ़ निश्चयी, आत्मविश्वासी और श्रद्धाशील युवक। संवर के अनुज का नाम धनदेव था। धनदेव अस्थिर चित्त और शंकाशील स्वभाव का युवक था। गृहदायित्व किस पुत्र को प्रदान किया जाए, इस प्रश्न पर श्रेष्ठी विशाखदत्त ने पुत्रों की बुद्धि की परीक्षा के लिए उनको समान धन देकर व्यापारार्थ विदेश भेजा। संवर विदेश गया। कांचीपुर नगर में जाकर उसने ऊंचे दामों पर अपना माल विक्रय किया और राजा का विश्वासपात्र बनकर अपने धन को सूद पर देकर कई गुणा बना लिया। क्योंकि वह राजा का विश्वास पात्र था इसलिए उसके धन को दबाने का दुःसाहस कोई नहीं कर सकता था। कुछ ही वर्षों में उसने प्रभूत धन अर्जित कर लिया।
धनदेव शंकाशील था। वह गज्जनय नगर के लिए रवाना हुआ। मार्ग में उसे कुछ व्यापारी मिले। व्यापारी धूर्त और चतुर थे। धनदेव के स्वभाव को समझते उन्हें देर न लगी। उन्होंने धनदेव को बताया कि उसके माल का मूल्य उसे गज्जनय नगर में कोड़ियों के भाव से मिलेगा। वह चाहे तो वे उसके माल को समान मूल्य पर खरीद सकते हैं। हानि के भय से धनदेव ने अपना पूरा माल उन व्यापारियों को अल्प मूल्य पर बेचकर भारी नुकसान उठाया। बचे धन को लेकर वह आगे बढ़ा और शंकाग्रस्त चित्त के कारण पुनः-पुनः व्यवसाय बदलता रहा। इससे शीघ्र ही उसकी पूंजी समाप्त हो गई और भिखारी बनकर वह अपने घर लौटा।
निर्धारित समय पर संवर भी अपने मूल धन को कई गुणा करके अपने नगर को लौटा। उसके पिता, नगर के राजा और नगर निवासियों ने उसका सम्मान और स्वागत किया। सेठ ने संवर को गृहस्वामी का उत्तरदायित्व प्रदान कर दिया।
-कथारत्न कोष, भाग 1 (ख) संवर
अयोध्या के एक राजा। भगवान अभिनन्दन के पिता। संवेग
एक सत्यनिष्ठ स्वर्णकार। वह जिनोपासक, अदत्त का त्यागी और पूर्ण प्रामाणिक व्यापारी था। उसकी प्रामाणिकता पर राजा और प्रजा को पूर्ण विश्वास था। फलतः वह धन तो संचित नहीं कर पाया, पर सुयश का उसने प्रभूत अर्जन किया। कालक्रम से उसके चार पुत्र हुए। चार पुत्रवधुएं आईं। परिवार फैला। चारों पुत्र पिता के कार्य में हाथ बंटाने लगे। संवेग सदैव पुत्रों को सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और प्रामाणिकता की सीख देता। पर पुत्रों को सत्य पर श्रद्धा न थी, उन्हें तो धन की कामना थी। पर संवेग के समक्ष उनकी एक नहीं चलती थी। पुत्रवधुएं भी आभूषण चाहती थीं। परन्तु मात्र मजदूरी से आभूषण बनें भी तो कैसे? पिता की प्रामाणिकता पर पुत्र खीझते थे। ___ एक बार राजा ने मोतियों का एक हार पिरोने के लिए संवेग के पास भेजा। एक पुत्रवधू ने राजा के मोतियों में से एक मोती चुरा लिया। इस पर संवेग बहुत नाराज हुआ और पूरे परिवार को एकत्रित करके ... 614 ..
- जैन चरित्र कोश ...