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आखिर मजदूरी की तलाश में महिपाल ने अपने तीन पुत्रों, चार बहुओं और अपनी पत्नी के साथ उस नगर को छोड़ दिया। ये नौ प्राणी मजदूरी की खोज में दर-बदर भटकने लगे।
शूरपाल ने अपने परिवार की खोज कराई पर उसे निराशा ही हाथ लगी। निर्धनों की आजीविका के लिए शूरपाल ने एक जलाशय खुदवाना शुरू किया। अनेक मजदूरों को उससे आजीविका मिली। महिपाल का परिवार भी आजीविका की तलाश में वहां पहुंचा और मजदूरी करने लगा। एक दिन शूरपाल स्वयं खुदाई के कार्य का निरीक्षण करने वहां पर आया तो उसने अपने परिवार को पहचान लिया। अपने परिवार और पत्नी की ऐसी दुरावस्था देखकर वह खिन्न बन गया। उसने एक योजना बनाई और उसके अनुसार महिपाल की छोटी बहू शीलवती को यह दायित्व दिया गया कि वह प्रतिदिन राजमहल से छाछ ले जाएगी।
राजा की इस अकारण-कृपा पर महिपाल और उसका परिवार बहुत खुश हुआ। शीलवती छाछ लेने राजमहल जाने लगी। दृष्टि को नीचे रखने के कारण वह अपने पति को पहचान नहीं पाती थी। एक दिन शूरपाल ने शीलवती के चारित्र की परीक्षा ली और उसे नए वस्त्र और आभूषण भेंट किए। शीलवती ने राजा की इस भेंट को ठुकरा दिया। राजा ने उसके समक्ष अपनी रानी बनने का प्रस्ताव रखा। इस पर शीलवती घायल सिंहनी की भांति गरज उठी और कड़े शब्दों में उसने राजा का प्रतिरोध किया। गद्गद भाव से शरपाल ने शीलवती को अपना परिचय दिया। पति को पहचानकर शीलवती का हर्ष अपार हो गया। पति-पत्नी का मिलन हुआ। आखिर शूरपाल ने अपने माता-पिता, भाइयों और भाभियों को भी अपने पास बुला दिया। वस्त्राभूषणों से सुसज्जित बनकर शीलवती ने अपने परिवार को भोजन कराया और शेष बचा-खुचा भोजन उसने स्वयं किया, उसके आनन्द का पारावार न था। ___ महिपाल ने अपनी पुत्रवधू शीलवती और पुत्र शूरपाल से अपनी नादानी के लिए क्षमा मांगी। शूरपाल और शीलवती ने पिता के चरण स्पर्श कर उसको मान दिया और उसे ही प्राप्त वैभव का कारण बताया। शूरपाल ने अपने तीनों अग्रजों को राज्य के विभाग प्रदान किए। माता-पिता को उसने अपने ही पास रखा। शीलवती सास, श्वसुर और पति की सेवा में निमग्न रहती और अपने को धन्य मानती।
कालान्तर में शीलवती ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम चन्द्रपाल रखा गया। चन्द्रपाल युवा हुआ। एक मुनि से अपना पूर्वभव सुनकर शीलवती और शूरपाल को जातिस्मरण ज्ञान की प्राप्ति हो गई। पुत्र को राजगद्दी पर अधिष्ठित करके उन्होंने मुनिधर्म अंगीकार किया और उत्कृष्ट चारित्र की आराधना द्वारा केवलज्ञान प्राप्त किया। दोनों ही मोक्ष के अधिकारी बने। शीलांकाचार्य ___ जैन परम्परा में उक्त नाम के कई आचार्य हुए हैं। उनमें प्रमुख दो हैं-(1) टीकाकार आचार्य शीलांक
और (2) ‘चउप्पन्न महापुरिस चरियं' नामक ग्रन्थ के रचनाकार आचार्य शीलांक। कुछ विद्वानों ने इन दोनों को एक ही आचार्य माना है। पर अद्यावधि प्राप्त प्रमाणों के आधार पर टीकाकार और चउप्पन्न चरियं के रचयिता दो अलग-अलग आचार्य रहे हैं।
शीलांकाचार्य संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के मर्मज्ञ थे। वे उत्कृष्ट प्रतिभा के धनी थे। आचारांग सूत्र पर उन्होंने 12,000 श्लोक परिमाण टीका की रचना की और सूत्रकृतांग पर 12850 श्लोक परिमाण टीका का निर्माण किया। __आचारांग सूत्र की टीका का रचना समाप्ति काल शक सं. 772 है जिसके अनुसार शीलांकाचार्य वी. नि. की 13-14वीं शती के आचार्य प्रमाणित होते हैं। ... 590 ..
- जैन चरित्र कोश ...