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शिशुपाल
महाभारत कालीन चेदी देश का राजा। शिशुपाल श्री कृष्ण को अपना जन्मजात शत्रु मानता था। कहते हैं कि श्रीकृष्ण ने शिशुपाल के सौ अपराध क्षमा करने का उसकी मां को वचन दिया था। एक सौ एकवें अपराध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध कर दिया।
जैन पुराणों के अनुसार जरासन्ध-कृष्ण युद्ध में शिशुपाल ने जरासन्ध के पक्ष से श्रीकृष्ण के विरुद्ध युद्ध लड़ा। उसी युद्ध में उसकी मृत्यु हुई।
-जैन महाभारत शीतलनाथ (तीर्थंकर)
भगवान शीतलनाथ भद्दिलपुर नगर के राजा दृढ़रथ और उनकी रानी नन्दा देवी के आत्मज थे। प्राणत स्वर्ग से च्यव कर भगवान जब मातृगर्भ में आए तो चहुं ओर सुख की शीतलता छा गई। साथ ही महाराज के शरीर का ताप जो लम्बे समय से बना हुआ था और बहुविध उपचारों से भी शान्त नहीं हुआ था रानी के कर स्पर्श से ही शान्त-शीतल हो गया। सभी ने इसे गर्भस्थ शिशु के पुण्य प्रभाव का प्रतिफल माना और शिशु के जन्म पर उसका नाम शीतलनाथ रखा।
शीतलनाथ युवा हुए। अनेक राजकन्याओं से उनका पाणिग्रहण कराया गया। पिता के बाद शीतलनाथ राजसिंहासन पर बैठे और सुदीर्घकाल तक उन्होंने राज्य किया। बाद में दीक्षा ली और तीन माह के संयम के पश्चात् केवलज्ञान प्राप्त कर धर्मतीर्थ की स्थापना की और तीर्थंकर पद प्राप्त किया। भगवान के गणों का संचालन 81 गणधर करते थे। लम्बे समय तक भव्य प्राणियों को धर्म का अमृतपान कराके भगवान वैशाख वदी 2 को सम्मेद शिखर से सिद्ध हुए। आप 24 तीर्थंकरों में दसवें तीर्थंकर थे।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष पर्व 3/8 शीलगणसूरि (आचार्य)
विक्रम सं. की 12-वीं 13-वीं सदी के एक महान जैन आचार्य । आचार्य शीलगणसूरि का नाम क्रियोद्धारक आचार्यों में सम्मिलित है। उन्होंने आगमानुसार चारित्र धर्म का पालन और प्रचार किया जिसके कारण उनका गच्छ आगमिक गच्छ के नाम से जाना गया। शीलगणसूरि के जीवन का संक्षिप्त परिचय निम्नोक्त है
कन्नौज राज्य के भट्टानिक नामक राजा का एक पुत्र था जिसका नाम कुमार था। एकदा कुमार शिकार के लिए वन में गया और उसने एक सगर्भा हिरणी पर बाण छोड़ दिया। हिरणी का गर्भ फट गया और शावक धरा पर आ गिरा। हिरणी और शावक ने तड़पते हुए कुछ ही देर में प्राण त्याग दिए। इस घटना से राजकुमार का हृदय भी तड़प उठा। पश्चात्ताप की अग्नि में जलता हुआ वह राजमहल लौटा और घटित घटना अपने माता-पिता को सुनाई। राजा ने पुत्र को अनेकविध धैर्य बंधाया और उसके संतोष के लिए सोने की हिरणी और शावक निर्मित कराकर ब्राह्मणों को दान में दिए। परन्तु इससे भी राजकुमार के पश्चात्ताप से दग्ध हृदय को शान्ति नहीं मिली। एक रात्रि में राजकुमार राजमहल का त्याग करके निकल गया। अनेक दिनों तक भटकने के पश्चात् उसे सिद्धसिंह नामक जैनाचार्य के उपदेश से शान्ति मिली और वह दीक्षित हो गया। जिज्ञासु कुमार शीघ्र ही आगमों का ज्ञाता बन गया। परन्तु उसने अनुभव किया कि उसके गच्छ के मुनियों का आचार आगम में वर्णित साध्वाचार से सर्वथा भिन्न है। उसने अपनी जिज्ञासा अपने गुरु के समक्ष रखी। गुरु ने कहा, शिष्य! हम में वह सामर्थ्य नहीं है कि हम आगमोक्त श्रमणाचार का आराधन कर सकें। ... 586 ..
--. जैन चरित्र कोश ...