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कुमार मुनि ने पूछा, गुरुदेव! आगम विरुद्ध आचार का पालन करने वाले श्रमण आराधक हैं या विराधक? गुरु ने उत्तर दिया, वत्स! हैं तो वे विराधक ही। कुमार मुनि ने कहा, गुरुदेव! मैं विराधक नहीं होना चाहता हूं। मुझे आशीर्वाद दीजिए, जिससे मैं आगमानुसार श्रमणाचार का पालन करके आराधक बन सकूँ।
गुरु का आशीर्वाद प्राप्त कर कुमार मुनि ने एकाकी विहार कर दिया और वे आगमोक्त श्रमणाचार की आराधना और प्रचार में तल्लीन हो गए। कालान्तर में कुमार मुनि का आचार्य यशोदेव से मिलन हुआ जो क्रियोद्धार के उद्देश्य से अपने गच्छ से स्वतंत्र विचर रहे थे। इन दोनों मुनियों का एक ही लक्ष्य था, अतः दोनों का संगठन हो गया। कुमार मुनि दीक्षाज्येष्ठ थे इसलिए आचार्य पद पर उनकी नियुक्ति हुई और उन्हें नवीन नाम-शीलगणसूरि प्रदान किया गया। ___ एक बार आचार्य शीलगणसूरि अणहिल्लपुर पाटण पधारे। अरिष्टनेमि जिनालय में वे वन्दन करने गए। जिनालय में पहले से ही आचार्य हेमचन्द्र और महाराज कुमारपाल उपस्थित थे। शीलगणसूरि को तीन स्तुति से देव वन्दन करते देख सम्राट् कुमारपाल ने हेमचन्द्राचार्य से पूछा, भगवन् ! यह किस प्रकार की देव वन्दना है? क्या यह विधिपूर्वक है?
आचार्य हेमचन्द्र ने फरमाया, राजन्! यह आगमिक विधि है, अर्थात् यह विधि आगमानुसार है।
आचार्य हेमचन्द्र के उक्त शब्द-'आगमिक' से ही शीलगणसूरि का गच्छ 'आगमिक गच्छ' नाम से जगत् में विख्यात हुआ। शीलपुंज
एक श्रेष्ठिपुत्र । सेवानिष्ठ और कोमलहृदय युवक। भवान्तर में शीलपुंज भगवान ऋषभदेव की पुत्री सुंदरी के रूप में जन्मा। (क) शीलवती ___ नन्दपुर नगर के श्रीमन्त श्रेष्ठी रत्नाकर की पुत्रवधू और अजितसेन की पत्नी। वह एक पतिव्रता, बुद्धिमती और अपने नाम के अनुरूप शीलवान स्त्री थी। उसकी अनेक विशेषताओं में से एक विशेषता यह थी कि वह पशु-पक्षियों की बोली भी समझती थी। एक बार जब वह रात्रि में सो रही थी तो एक शृगाल बोला। शृगाल के कहे को समझकर शीलवती उठी, कुछ खाद्य-पदार्थ अपने साथ लेकर वह जंगल की ओर चल दी। उसने शृगाल को खाद्य पदार्थ दिए और नदी किनारे एक वृक्ष से अटके शव की जंघा से पांच अमूल्य लाल प्राप्त कर वह घर लौट आई। पति को निद्राधीन देखकर वह भी सो गई। पर पति की वह निद्रा कृत्रिम थी। उसने शीलवती को जाते और आते देख लिया था। वह घोर अविश्वास से भर गया। उसे निश्चय हो गया कि उसकी पत्नी दुराचारिणी है। उसने उसे त्यागने का निश्चय कर लिया।
प्रभात होते ही अजितसेन ने पिता रत्नाकर को रात की घटना कही और अपना निर्णय सुना दिया कि वह शीलवती के साथ एक क्षण भी नहीं रह सकता है। रत्नाकर को अपनी पुत्रवधू के चरित्र पर संदेह तो नहीं था पर पुत्र के कहे को भी वह नकार नहीं सकता था। आखिर उसने एक कल्पित संवाद कहकर शीलवती को उसके पीहर चलने को कहा। शीलवती ने बात के रहस्य को समझकर भी अनजान बनी रहने का अभिनय किया। रत्नाकर शीलवती को रथ में बैठाकर उसके पीहर के लिए चल दिया। मार्ग पर मूंग के हरे-भरे खेत को देखकर रत्नाकर ने किसान के भाग्य को सराहा। इस पर शीलवती बोली, इस खेत का स्वामी किसान तो भूखों मरेगा। पुत्रवधू द्वारा अपनी बात का खण्डन देखकर सेठ को बहुत बुरा लगा। पर वह कुछ बोला ... जैन चरित्र कोश..
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