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सुविशाल था। शहंशाह अकबर भी उनसे विशेष प्रभावित था। अकबर की प्रार्थना पर उन्होंने लाहौर में दो चातुर्मास किए थे। एक प्रसंग पर अकबर के दरबार में उन्होंने कई विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ किया और विजय प्राप्त की। दो भिन्न-भिन्न अवसरों पर बादशाह अकबर ने उनको 'सवाई हीरनी' तथा 'काली सरस्वती' की उपाधियों से सम्मानित किया था।
आचार्य विजयसेन का जन्म नारदपुरी में वी.नि.सं. 2078 (वि. 1608) में हुआ। दीक्षा वी.नि. 2087 (वि. 1617) में तथा आचार्य पद पर नियुक्ति वी.नि. 2098 (वि. 1628) में हुई। तपागच्छ के आचार्य हीरविजय उनके गुरु थे।
-पट्टावली समुच्चय (क) विजया
राजकुमार वज्रधर (विहरमान तीर्थंकर) की परिणीता। (देखिए-वज्रधर स्वामी) (ख) विजया
नवम विहरमान तीर्थंकर प्रभु सूरप्रभ स्वामी की जननी। (देखिए-सूरप्रभ स्वामी) (ग) विजया
अश्वपुर नरेश शिव की रानी और पुरुषसिंह वासुदेव की जननी। (दखिए-पुरुषसिंह वासुदेव) (घ) विजया
षष्ठम गणधर मंडितपुत्र की जननी। (देखिए-मंडितपुत्र गणधर) (ङ) विजया
प्रभु अजितनाथ की माता। (च) विजया
एक राजकुमारी जिसका विवाह राजकुमार अनन्तवीर्य (विहरमान तीर्थंकर) से हुआ था। दिखिए-अनन्तवीर्य स्वामी वि.ती.) (छ) विजया
. तृतीय विहरमान तीर्थंकर श्री बाहुस्वामी की जननी। (देखिए-श्री बाहुस्वामी वि.ती.) विदर्भ
भगवान सुपार्श्व नाथ के 95 गणधरों में से ज्येष्ठ गणधर । (क) विदुर
कुरुवंशी विचित्रवीर्य का अंबा रानी से उत्पन्न पुत्र। धृतराष्ट्र और पाण्डु विदुर के ज्येष्ठ भ्राता थे। धृतराष्ट्र के नेत्रहीन होने के कारण पाण्डु हस्तिनापुर के राजा बने और विद्वान व नीति-निपुण होने के कारण विदुर हस्तिनापुर साम्राज्य के मंत्री नियुक्त हुए। कुरु राजनीति की उठापटक में विदुर ने सदैव सत्य का पक्ष लिया। मंत्रीपद का व्यामोह उनके सत्य संभाषण में कभी भी बाधा नहीं बना। धृतराष्ट्र और दुर्योधन के अनुचित निर्णयों की विदुर सदैव तीखी आलोचना करते रहे। दुर्योधन ने जब विदुर की अवमानना करनी शुरू कर दी तो विदुर ने बिना विलम्ब किए मंत्री पद को त्याग दिया। ... 550 ..
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