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कालक्रम से विजय का विवाह कच्छ देश के एक श्रेष्ठी धनावह की पुत्री विजया के साथ सम्पन्न हुआ। यह परिवार भी धर्मनिष्ठ और अनन्य श्रमणोपासक था और संयोग से विजया ने भी एक साध्वी से जीवन भर के लिए कृष्ण पक्ष में ब्रह्मचर्य पालन का नियम ले लिया था। इन दोनों के इस नियम की बात सर्वथा गुप्त थी। विवाह की प्रथम रात्रि में ही विजय और विजया ने परस्पर एक-दूसरे को अपने-अपने नियम की बात बताई। एक दूसरे की बात सुनकर क्षण भर के लिए दोनों अवाक् रह गए। पर शीघ्र ही संभलते हुए दोनों ने पूरे मनोवेग से यह भीष्म संकल्प किया कि वे दोनों समाज के समक्ष पति-पत्नी रहेंगे पर वास्तविक जीवन के तल पर वे बहन और भाई की तरह जीवन यापन करेंगे। इसके साथ ही जिस दिन उनका यह रहस्य अनावृत हो जाएगा उस दिन वे संसार का त्याग कर दीक्षा धारण कर लेंगे। इस प्रकार साथ-साथ रहते, साथ-साथ एक शैया पर सोते हुए भी पवित्र और उत्साहित संकल्प के साथ उन्होंने जीवन यापन प्रारंभ कर दिया। इस तरह रहते हुए अनेक वर्ष बीत गए।
___ अंगदेश की राजधानी चम्पानगरी में जिनदास नाम का एक बारह व्रती श्रावक रहता था। श्रमणों की सेवा भक्ति में उसे विशेष आनन्द प्राप्त होता था। एक बार उसके मन में एक महत्संकल्प जागा कि वह एक साथ चौरासी हजार श्रमण-श्रमणियों को अपने हाथ से आहार दे। पर यह कैसे संभव हो सकता है? इतने श्रमण-श्रमणी एक स्थान पर कैसे एकत्रित हों। एकत्रित हों भी तो एक ही दाता के हाथ से वे आहार कैसे लें? ऐसे संकल्प-विकल्प उसके भीतर तैरते। संयोग से उन्हीं दिनों मुनि विमल नामक एक अतिशय ज्ञानी मुनि चम्पानगरी पधारे। जिनदास ने मुनि को अपना संकल्प कहा और पूछा कि उसका यह संकल्प किस विधि से पूर्ण हो सकता है। ज्ञानी मुनि ने स्पष्ट किया कि एक साथ चौरासी हजार श्रमणों का एकत्रित होना तो असंभव सा है। पर उसके संकल्प की पूर्ति का एक अन्य मार्ग भी है। जिनदास के पूछने पर मुनि ने कहा-चौरासी हजार श्रमणों को दान देने से उसे जिस आनन्द और अहोभाव की प्राप्ति होगी उसी आनन्द और अहोभाव की प्राप्ति उसे कच्छदेश वासी दम्पती विजय और विजया के दर्शनों से प्राप्त होगी। विजय और विजया वर्षों से साथ-साथ रहकर और सहशैया पर शयन करते हुए भी अखण्ड ब्रह्मचर्य की आराधना कर रहे हैं।
जिनदास विजय-विजया की अद्भुत साधना की बात सुनकर कृतकृत्य बन गया और वह अपने परिवार के साथ कच्छ देश गया। वहां विजय-विजया के पास पहुंचकर भावविभोर बनकर उनकी स्तुति करने लगा। इस स्तुति से लोगों को विस्मय हुआ और उन्होंने इसका कारण पूछा। इस पर जिनदास ने पूरा आख्यान स्पष्ट कर दिया कि यह दम्पति साथ-साथ रहकर तथा सर्वविध योग्य व समर्थ होते हुए भी अखण्ड ब्रह्मचर्य की साधना कर रहे हैं। इनके दर्शनों में चौरासी हजार श्रमणों के दर्शनों का पुण्य लाभ छिपा है।
इस बात को सुनकर विजय-विजया के महान तप को सब ने धन्य-धन्य कहा। अपने संकल्प के अनुसार रहस्य अनावृत होने पर विजय-विजया ने दीक्षा धारण कर ली और विशुद्ध संयम पालकर एवं कैवल्य साधकर मोक्ष गति पाई। (क) विजयसेन
देवशाल नगर का राजा। (देखिए-कलावती) (ख) विजयसेन (आचार्य)
___ एक प्रभावशाली जैन आचार्य। वे विद्वान मुनि थे और वाद कला में निपुण थे। उनका प्रभाव क्षेत्र ... जैन चरित्र कोश ...
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