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बहुमुखी व्यक्तित्व के स्वामी होने के कारण श्री कृष्ण भारतीय जनमानस में सर्वाधिक समादृत पुरुष हैं। वासुदेव पद के धारक होने के कारण तथा वसुदेव के पुत्र होने के कारण वे 'वासुदेव' नाम से भी विख्यात हैं ।
वासुपूज्य (तीर्थंकर)
वर्तमान अवसर्पिणी काल के बारहवें तीर्थंकर । दसवें देवलोक से च्यव कर प्रभु का जीव चम्पानगरी के महाराज वसुपूज्य की रानी जयादेवी की रत्नकुक्षी में उत्पन्न हुआ। महारानी जयादेवी ने चौदह महान स्वप्न देखे। स्वप्न सुनकर स्वप्नशास्त्रियों ने घोषणा की कि महारानी चक्रवर्ती अथवा धर्म चक्रवर्ती पुत्र को जन्म
| फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को प्रभु का जन्म हुआ। उन्हें वासुपूज्य नाम दिया गया । वासुपूज्य बाल्यकाल ही विरक्त प्रकृति के थे । यौवन में उनकी विरक्ति और प्रबल बन गई। माता, पिता और परिजनों के आग्रह और अनुग्रह पर भी प्रभु ने विवाह और राजपद के प्रस्तावों को अस्वीकार कर दिया। भोगों से कुमार की विरक्ति देखकर सभी को विश्वास हो गया कि वासुपूज्य जागतिक चक्रवर्ती नहीं बल्कि धर्मचक्रवर्ती होंगे। हुआ भी वही । कुमारकाल के शिखर पर आरोहित प्रभु ने वर्षीदान देकर फाल्गुन कृष्णा अमावस्या दिन दीक्षा धारण कर ली। प्रभु के वैराग्य की कुछ ऐसी लहर चली कि उनके साथ सात सौ राजाओं ने भी प्रव्रज्या धारण की। एक मास की अल्पकालिक साधना में ही प्रभु ने घनघाती कर्मों का घात करके केवलज्ञान को साध लिया ।
प्रभु ने तीर्थ की स्थापना की। सूक्ष्म प्रमुख प्रभु के छियासठ गणधर थे । लाखों-लाख भव्यप्राणियों के लिए कल्याण का द्वार बन कर प्रभु ने छह सौ मुनियों के साथ निर्वाण पद प्राप्त किया ।
- त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र
विंध्य
विंध्याचल पर्वत के निकट बसे जयपुर नगर का राजा, और पट्ट परम्परा के तृतीय पट्टधर प्रभव स्वामी का पिता । (देखिए - प्रभव स्वामी)
विकट
पोतनपुर नरेश । (देखिए -पुरुष सिंह वासुदेव)
विक्रम कुमार
तिलकपुर नगर के महाराज मणिरथ का पुत्र, एक साहसी, शूरवीर, बुद्धिमान और विभिन्न कलाराजकुमार। जब वह युवा हुआ तो उसने भाग्य परीक्षा के लिए देशाटन किया। उसने अपनी यात्रा में कई लोगों की सहायता की, कई राजाओं को अपने शौर्य और बुद्धि से चमत्कृत किया । परिणामतः उसे अनेक दिव्य विद्याओं और चार पत्नियों की प्राप्ति हुई । उसकी तीन पत्नियां राजकुमारियां थीं और चतुर्थ मंत्रि-पुत्री थी। देशाटन के पश्चात् विक्रम कुमार अपने नगर में लौट आया ।
एक बार तिलकपुर नगर के राजोद्यान में विशिष्ट ज्ञानी मुनि अकलंक पधारे। राजा मणिरथ अपने पुत्र और पुत्रवधुओं के साथ मुनि-दर्शन के लिए गए। मार्ग में राजा ने एक रुग्ण भिखारी को भूमि पर पड़े देखा । . उसे देखकर राजा का हृदय करुणा से भर गया । सेवकों से कहकर राजा ने उसे वृक्ष के नीचे लेटा दिया। तदनन्तर राजा मुनिसभा में पहुंचा। प्रवचनोपरान्त राजा ने मुनि से रुग्ण भिखारी के बारे में पूछा कि उसने ऐसे क्या कर्म किए हैं जिनसे वह ऐसा नारकीय जीवन जीने पर विवश है ।
••• जैन चरित्र कोश
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