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मुनि ने राजा और उपस्थित जन समुदाय के समक्ष भिखारी का पूर्वभव सुनाया। मुनि के फरमाया, मणिमंदिर नामक नगर में सोम और भीम नामक दो मित्र रहते थे, वे दोनों ही कुलपुत्र थे, परन्तु अत्यन्त निर्धन थे। समान दशा होते हुए भी दोनों में विभिन्नता यह थी कि सोम अक्षुद्र वृत्ति वाला था और भीम क्षुद्रवृत्ति वाला था। एक बार वे दोनों मजदूरी के लिए जा रहे थे कि पुण्ययोग से उन्हें एक मुनि एक वृक्ष के नीचे ध्यान मुद्रा में बैठे दिखाई दिए। सोम ने भीम से मुनि दर्शन करने के लिए कहा। पर भीम ने सोम के प्रस्ताव का उपहास उडाया और कहा. उन्हें मनिदर्शन की नहीं उदरपोषण की आवश्यकता है। मनियों के पास त्याग-पच्चक्खाण के अतिरिक्त रखा ही क्या है? वे स्वयं भीख मांग कर पेट भरते हैं, अतः उनके पास जाने का कुल परिणाम इतना है कि व्यर्थ समय नष्ट किया जाए। ___ भीम के वचन सुनकर सोम उससे क्षुब्ध हो गया। उसने उससे अपने मैत्री सम्बन्ध उसी क्षण समाप्त कर दिए और वह स्वयं मनि के चरणों में पहुंचा। मुनि ने उसे धमोपदेश दिया और उसकी प्रार्थना पर उस श्रावकधर्म प्रदान किया। सोम निष्ठा पूर्वक श्रावकधर्म की आराधना करके राजकुमार विक्रम के रूप में जन्मा और भीम आयुष्य पूर्ण कर उक्त भिखारी के रूप में जन्मा।
राजा और प्रजा भिखारी और राजकुमार विक्रम का पूर्वभव सुनकर धर्म के प्रभाव को देख-सुन कर गद्गद हो गए। अनेक लोगों ने श्रावक धर्म अंगीकार किया। महाराज मणिरथ अपने पुत्र विक्रम को राजपद देकर प्रव्रजित हो गए। विक्रम ने भी श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए।
राजा विक्रम ने सुदीर्घ काल तक न्याय और नीति पूर्वक प्रजा का पालन किया। आयु के उत्तर पक्ष में उसने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर चारित्र अंगीकार किया और परमपद का अधिकार पाया।
-धर्मरत्न प्रकरण, गाथा 8 विक्रमादित्य
ईसा पूर्व 57 के भारतवर्ष के एक तेजस्वी और यशस्वी सम्राट्। उज्जयिनी नरेश गर्दभिल्ल ने सरस्वती नामक एक जैन साध्वी का अपहरण कर लिया था। सरस्वती के सहोदर और जैन धर्म के प्रभावक आचार्य कालक द्वारा समझाए जाने पर भी गर्दभिल्ल ने साध्वी को मुक्त नहीं किया तो कालकाचार्य ने शकशाहों को प्रभावित कर उन से गर्दभिल्ल पर आक्रमण कराया। युद्ध में गर्दभिल्ल का पतन हुआ और साध्वी सरस्वती को मुक्ति मिली, पर उज्जयिनी का साम्राज्य अनार्य शकशाहों के हाथों में चला गया। इस बात की पीड़ा कालकाचार्य को भी थी। गर्दभिल्ल का तेजस्वी पुत्र (इतर मान्यतानुसार पारिवारिक युवक) विक्रमादित्य के लिए तो शकों का साम्राज्य असह्य हो उठा। उसने मालवजनों को अपने नेतृत्व में संगृहीत किया और शक शाहों के विरुद्ध युद्ध किया जिसमें शकों की करारी पराजय हुई। विक्रमादित्य उज्जयिनी के सार्वमौम सम्राट् बने।
विक्रमादित्य गर्दभिल्ल से पूर्णरूपेण विपरीत स्वभाव नृप सिद्ध हुए। वे वीर, उदार और प्रजावत्सल नरेश थे। प्रजा के हित के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए और अहर्निश प्रजा हित के लिए वे समर्पित रहे। उनके राज्यकाल की समता रामराज्य से की जाती है।
विक्रमादित्य के चरित्र के साथ पौराणिक साहित्य में अनेकानेक अतिरंजित कथाएं जुड़ी हुई हैं जिनसे विक्रमादित्य की तेजस्विता, शूरवीरता, न्याय परायणता और लोकप्रियता सहज रूप में प्रमाणित होती है।
मालवा पर विक्रमादित्य के शासन स्थापना के समय से ही विक्रम संवत् का प्रारंभ हुआ।
विक्रमादित्य के सम्बन्ध में प्राप्त शिलालेखों और साहित्यिक उल्लेखों से सहज सिद्ध होता है कि वे .544 ..
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