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की मींगणियां देता था। मेतार्य के पिता मेहर चाण्डाल ने उन स्वर्ण मींगणियों को समेटा और उन्हें लेकर महाराज श्रेणिक के पास पहुंचा। उन्हें महाराज को भेंट करते हुए उसने उनकी पुत्री का हाथ अपने पुत्र के लिए मांगा। इस पर अभयकुमार ने मेहर के समक्ष एक असंभव शर्त रखी कि यदि वह राजगृह के चारों ओर सोने का परकोटा बनवा दे, वैभारगिरि पर्वत पर पुल बांध दे तथा उसके नीचे गंगा, यमुना, सरस्वती और क्षीर सागर का जल प्रवाहित कर दे, उस जल में उसका पुत्र स्नान करके पवित्र हो तब उसे राजकन्या मिल सकती है अन्यथा नहीं।
निःसंदेह यह असंभव कार्य था परन्तु देवशक्ति के कारण यह संभव बन गया। फलतः मेतार्य का विवाह महाराज श्रेणिक की पुत्री के साथ हो गया, श्रेष्ठी ने उसे पुनः अपना पुत्र मान लिया तथा उसकी प्रतिष्ठा पहले से भी अधिक बढ़ गई। यह सब होने पर मित्र देव ने मेतार्य को दीक्षा लेने को कहा तो उसने बारह वर्ष सांसारिक सुख भोगने की इच्छा प्रगट की। बारह वर्ष बाद देव पुनः उपस्थित हुआ तो इस बार मेतार्य की पत्नी ने बारह वर्ष और मांग लिए। उसके पश्चात् मेतार्य ने भगवान महावीर के पास दीक्षा धारण कर ली।
मेतार्य मुनि ने स्थविर मुनियों से नौ पूर्वो तक का अध्ययन किया और जिनकल्पी बनकर एकलविहारी बन गए। उग्र तपश्चरण करते हुए विचरण करने लगे। एक बार विचरते हुए राजगृह नगरी में आए। भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए एक स्वर्णकार के द्वार पर पहुंचे। उस समय स्वर्णकार राजाज्ञा से स्वर्णयव बना रहा था। मुनि को अपने द्वार पर देखकर वह श्रद्धा से भर गया और स्वर्णयवों को वैसे ही छोड़कर भिक्षा लेने घर के भीतर चला गया। संयोग से उसी समय वहां एक क्रोंच पक्षी युगल आ गया। उन्होंने स्वर्णयवों को असली यव समझकर निगल लिया और उड़कर सामने ही एक वृक्ष पर बैठ गया। स्वर्णकार घर से बाहर आया तो उसकी दृष्टि स्वर्णयवों पर पड़ी। स्वर्णयवों को न पाकर वह संदेहशील बन गया। उसने उनके बारे में मुनि से पूछा। मुनि के समक्ष धर्म संकट उपस्थित हो गया। यदि वे सत्य कहते तो क्रोंचयुगल का जीवन संकट में पड़ जाता और असत्य कहते तो उनका सत्य महाव्रत खण्डित हो जाता। ऐसे में उन्होंने मौन रहना ही श्रेयस्कर माना और स्वर्णकार के प्रश्न का कोई उत्तर न दिया। मुनि के मौन से स्वर्णकार का संदेह विश्वास में बदल गया। स्वर्णकार विवेकान्ध बन गया। वह मुनि को अपने गृहांगन में ले गया। द्वार बन्द कर उसने मुनि के मस्तक पर आर्द्र चमड़ा कस कर बांध दिया। धूप में आई चमड़ा सूखने लगा और उससे मुनि का मस्तक भिंचने लगा। मुनि को असह्य पीड़ा हुई, पर वे उस पीड़ा का गरलपान पूर्ण समता भाव से करते रहे। मुनि का मस्तक पिचक गया। समता और क्षमा भाव की पराकाष्ठा पर विहरण करते हुए मुनि को केवलज्ञान हो गया और वे देह त्याग कर मोक्षगामी बन गए।
उधर एक लकड़हारा लकड़ियों का गट्ठर लेकर स्वर्णकार के घर आया। उसने जोर से गट्ठर जमीन पर पटक दिया। उसकी आवाज से क्रोंच युगल भयभीत बन गया और उसने विष्ठा कर दी। उससे स्वर्णयव जमीन पर आ गिरे। इसे देखकर स्वर्णकार को सत्य का ज्ञान हो गया। वह अपने कृत्य पर दुखित और भयभीत बन गया। दौड़कर मुनि के पास पहुंचा तो वहां मुनि का शव देखकर उसका हृदय महान ग्लानि से भर गया। उसी समय वह भगवान महावीर के पास पहुंचा। उसने निष्कपट हृदय से अपना पाप भगवान के समक्ष प्रगट कर दिया। प्रायश्चित्त से विशुद्ध बनकर वह दीक्षित हो गया और सद्गति का अधिकारी बना।
-आख्यानक मणिकोष 41/126
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