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उनके सुशासन से उनकी ख्याति चहुं ओर फैल गई। इससे दुखी बनकर विमाता ने उसके लिए विषमोदक भेजे। पर संयोग से वे विषमोदक उसी के पुत्रों गुणचन्द्र और बालचन्द्र ने खा लिए। विष फैलने लगा। सागरचन्द्र को पूरा रहस्य समझते देर न लगी। उसने मणिमंत्र से भाइयों को विषमुक्त बना दिया। इस घटना से उनका वैराग्य और सुदृढ़ बन गया। राजपाट त्याग कर वे मुनि बन गए।
किसी समय मुनि सागरचन्द्र भ्रमण करते हुए उज्जयिनी नगरी पधारे जहां उन्हीं का अनुज मुनिचन्द्र शासन करता था। मुनिचन्द्र तो धर्मनिष्ठ था परन्तु उसका पुत्र पुरोहित-पुत्र के साथ मिलकर बड़े उच्छृखल स्वभाव का बन गया था। क्योंकि वह युवराज था इसलिए उसकी उच्छृखलता निरंकुश ढंग से बढ़ती गई। वह पुरोहित पुत्र के साथ मिलकर मनमानी करता और विशेष रूप से ये दोनों श्रमण-निर्ग्रन्थों को परेशान करते। एक दिन मनि सागरचन्द्र उन दोनों के दृष्टिपथ पर आ गए तो उन्होंने उन्हें भी बहुत परेशान किया। उन्हें शिक्षा देने के लिए मुनिश्री ने उनकी हड्डियां उतार दी और स्वयं नगर से बाहर आकर प्रायश्चित्त लेकर कायोत्सर्ग में लीन हो गए।
राजा को पूरी बात ज्ञात हुई तो वह मुनि के पास पहुंचा। उसने मुनि से क्षमा मांगी और अपने पुत्र तथा पुरोहित-पुत्र को स्वस्थ करने की प्रार्थना की। मुनि ने उन दोनों को इस शर्त पर स्वस्थ किया कि वे दोनों मनि दीक्षा ले लेंगे। आखिर वचनबद्धता के कारण दोनों ने दीक्षा ले ली। संयम पालकर दोनों वैमानिक देव बने। एक बार ये दोनों देव नंदीश्वर द्वीप में विराजित तीर्थंकर भगवान के दर्शनों के लिए गए। उन्होंने भगवान से पूछा कि वे सुलभबोधि होंगे या दुर्लभबोधि । भगवान ने युवराज से देव हए देवता को दुर्लभबोधि और पुरोहित-पुत्र वाले देव को सुलभ-बोधि होने की बात कही। युवराज वाले देव ने मित्र देव से प्रार्थना की कि वह उचित समय पर उसे प्रतिबोधित करे। मित्र ने उसे प्रतिबोध देने का वचन दे दिया।
राजगृह नगर में एक सेठ रहता था। उसकी पत्नी मृतवत्सा थी। इससे सेठ और सेठानी बड़े दुखी रहते थे। उनके घर मेती नाम की एक चांडालिनी आती थी। एक बार सेठानी ने उसे अपनी व्यथा सुनाई तो चाण्डालिनी ने अपना पुत्र उसे देने का वचन दिया। संयोग से सेठानी और चांडालिनी एक ही समय गर्भवती हुईं। प्रसव पर मेती ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया और सेठानी ने एक कुरूप कन्या को। मेती के गर्भ से जन्मा पुत्र युवराज वाले देव का जीव ही था। मेती ने उसे सेठानी के पास पहुंचा दिया और उसकी पुत्री को अपने साथ ले गई। सेठ सेठानी फूले न समाए। पुत्र का नाम उन्होंने मेतार्य रखा और धूमधाम से उसका जन्मोत्सव मनाया। ____मेतार्य जब युवा हुआ तो उसके मित्र देव ने वचनबद्धता के कारण उसे प्रतिबोधित किया, पर मेतार्य को प्रतिबोध नहीं लगा। उन्हीं दिनों सेठ ने मेतार्य का सम्बन्ध आठ श्रेष्ठि कन्याओं से सुनिश्चित कर दिया। देव ने मेतार्य को प्रतिबोध देने का एक अन्य उपक्रम किया। उसने मेती चाण्डालिनी में प्रवेश करके आठों श्रेष्ठियों के समक्ष मेतार्य के जन्म और कुल का रहस्य खोल दिया। चाण्डाल-पुत्र के साथ श्रेष्ठी अपनी पुत्रियों के विवाह कैसे करते? उन्होंने मेतार्य से सुनिश्चित किए गए अपनी पुत्रियों के सम्बन्ध तोड़ दिए। इतना ही नहीं, मेतार्य को चाण्डाल गृह में जाकर रहना पड़ा। इतना होने पर भी मेतार्य प्रतिबोधित न हुआ। मित्र देव ने उसे संसार का स्वरूप समझाया और दीक्षा के लिए प्रेरित किया। इस पर मेतार्य बोला, यदि मेरी खोई हुई प्रतिष्ठा मुझे वापिस मिल जाए और राजा श्रेणिक मुझे अपना जामाता बना ले तथा श्रेष्ठी पुनः मुझे अपना पुत्र मान ले तो मैं दीक्षा ले लूंगा।
मित्र देव ने मेतार्य को वैसा करने का वचन दे दिया और उसे एक ऐसा बकरा प्रदान किया जो सोने ... जैन चरित्र कोश..
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