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ती
मेरक
( देखिए- मेतार्य मुनि)
नंदनपुर नरेश महाराज समरकेशरी का पुत्र और वर्तमान अवसर्पिणी का तृतीय प्रतिवासुदेव । (देखिए - स्वयंभू वासुदेव)
(क) मेरुतुंग (आचार्य)
वी.नि. की 19वीं सदी के एक विद्वान आचार्य । 'प्रबन्ध चिन्तामणि' नामक ऐतिहासिक ग्रन्थ के रचनाकार के रूप में उनकी विशेष ख्याति है । 'मेघदूत' काव्यकार मेरुतुंग इनसे भिन्न और उत्तरवर्ती आचार्य थे। प्रबन्ध चिन्तामणि नामक ग्रन्थ में श्री ऋषभदेव, श्री शान्तिनाथ, श्री नेमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ तथा श्री महावीर स्वामी आदि तीर्थंकरों का संक्षिप्त शैली में जीवन परिचय है । इस ग्रन्थ की रचना आचार्य मेरुतुंग ने वी. नि. 1831 में सम्पन्न की। इस उल्लेखानुसार आचार्य मेरुतुंग वी. नि. की 19वीं सदी के आचार्य प्रमाणित होते हैं । (ख) मेरुतुंग (आचार्य)
श्रेष्ठ ग्रन्थों की रचना करने वाले एक विद्वान जैन आचार्य । आचार्य मेरुतुंग वी. नि. की 19वीं - 20वीं सदी के प्रभावक आचार्य थे। अंचलगच्छ के महेन्द्रप्रभ सूरि उनके गुरु थे।
आचार्य मेरुतुंग का जन्म मारवाड़ प्रान्त के नाणी ग्राम में वी. नि. 1873 में हुआ था। पोरवाल वंश के श्रेष्ठी वीरसिंह उनके पिता और नाल्हदेवी उनकी माता थी। गृह जीवन में उनका नाम वस्तिग था । मुनिदीक्षा लेने के पश्चात् मुनि मेरुतुंग ने जैन और जैनेतर दर्शनों का गंभीर अध्ययन किया तथा कई भाषाओं के वे अधिकारी विद्वान बने। उन्होंने कई उत्कृष्ट ग्रन्थों की रचना भी की। षडदर्शन समुच्चय, रसाध्याय टीका, मेघदूत, सप्ततिका भाष्यवृत्ति, शतपदी सारोद्धार, कामदेव चरित आदि उनके विश्रुत ग्रन्थ हैं।
वी.नि. 1941 में उनका स्वर्गवास हुआ।
-मुनि लाखागुरु पट्टावली
मैनासुंदरी
एक पतिपरायणा सन्नारी जो स्वकृत कर्म को प्रधान मानती । उसका दृढ़ विश्वास था कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का विधाता होता है। माता-पिता या अन्य कोई किसी के भाग्य की रचना नहीं कर सकता है। उसके इसी विश्वास के कारण उसके अहंकारी पिता ने उसका विवाह एक कोढ़ी के साथ कर दिया, पर उसने शीघ्र ही अपने पुरुषार्थ पूर्ण तप-जप बल से अपने पति को स्वस्थ बना दिया और अल्पसमय में ही उसका पति विशाल साम्राज्य का स्वामी बन गया और वह पटराणी बन गई । (देखिए - श्रीपाल )
मोतीचन्द्र
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साकेत नगर के धनी श्रेष्ठी । आचार्य धर्मघोष का प्रवचन सुनकर मोतीचन्द्र के हृदय में दया और दान के भाव प्रबल बने। वह प्रतिदिन हृदय के कपाट खोलकर जरूरतमंदों की सहायता करता था । दान से उसकी लक्ष्मी पूर्वापेक्षया और अधिक वृद्धि को प्राप्त होती गई। पूरे राज्य में उसका सुयश फैला था ।
एक रात्रि में लक्ष्मी मोतीचन्द्र के समक्ष उपस्थित हुई और बोली, श्रेष्ठिन् ! मेरा नाम चंचला है। एक स्थान पर मैं अधिक समय तक नहीं ठहरती हूं। तुम्हारे साथ मैं काफी लम्बे समय तक रही। अब मैं तुम्हारे पास से जाना चाहती हूं। आज से आठवें दिन मैं तुमसे अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लूंगी । ••• जैन चरित्र कोश
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