________________
काट लिया। धनदत्त और महानन्द ने वैद्यों और गारुड़ियों को बुलाया। अनेक उपचार किए गए पर महानन्द का पुत्र स्वस्थ नहीं हुआ। तब धनदत्त ने घोषणा की कि जो कोई व्यक्ति उसके पौत्र को स्वस्थ करेगा उसे वह एक करोड़ स्वर्णमुद्राएं पुरस्कार में देगा। इस घोषणा को सुनकर दूर-दूर से तांत्रिक और मांत्रिक आए, पर परिणाम शून्य रहा। आखिर एक वृद्ध वैद्य ने शिशु का परीक्षण किया। उसने कहा, आज की रात्रि शिशु को निर्विष नहीं किया जा सका तो उसकी मृत्यु सुनिश्चित है। मैं इस बालक का उपचार कर सकता हूँ पर औषध तो मेरे घर पर ही छूट गई है। मेरा घर यहां से एक सौ दस योजन की दूरी पर है। पौ फटने से पूर्व यदि वह औषध कोई ला सके तो शिशु के प्राण बचाए जा सकते हैं ।
महानन्द कुमार के पास आकाशगामिनी विद्या थी और वह अल्प समय में ही हजारों योजन की दूरी तय कर सकता था। परन्तु उसने गुरुदेव से श्रावक धर्म अंगीकार करते हुए प्रण किया था कि वह लौकिक कार्यों के लिए एक दिन में सौ योजन से अधिक की यात्रा नहीं करेगा। वैद्य का गांव एक सौ दस योजन की दूरी पर था । इसलिए वह इस यात्रा को नहीं कर सकता था । उसे अपने पुत्र के प्राणों से अधिक अपना प्रण प्रिय था। परिवार, परिजनों और पुरजनों ने विविध तर्कों से महानन्द को समझाया, औषध लाने को कहा, पर महानन्द कुमार अपने प्रण पर अडिग रहा। नगर नरेश महाराज विक्रमादित्य ने भी महानन्द को समझाया कि वह अपवाद मार्ग का आश्रय लेकर औषध ले आए जिससे उसके पुत्र के प्राण बच सकें, परन्तु महानन्द ने राजा के आग्रह को भी अस्वीकार कर दिया । महानन्द की दृढधर्मिता से शासनदेवी का सिंहासन डोल उठा। शासनदेवी प्रगट हुई और उसने घोषणा की, महानन्द कुमार अपने हाथ में जल लेकर शिशु पर डालें। उनकी व्रत-निष्ठा के प्रभाव से वह जल ही संजीवनी का काम करेगा। महानन्द कुमार ने वैसा ही किया और देखते ही देखते उसका पुत्र ऐसे उठ बैठा जैसे कि वह निद्रा से जगा है ।
महानन्द कुमार की व्रतनिष्ठा की स्तुतियां दसों दिशाओं में व्याप्त हो गईं। अनेक लोगों ने उससे प्रेरणा पाकर व्रत धारण किए और दृढ़ता से उनका पालन किया। जीवन के उत्तरपक्ष में महानन्द कुमार ने मुनिदीक्षा धारण की । देह त्याग कर वह माहेन्द्र कल्प में इन्द्र के समान महर्द्धिक देव बना। वहां से च्यव कर वह मनुष्य भव धारण करेगा और सिद्धि प्राप्त करेगा ।
- श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र ( रत्नशेखर सूरिकृत) / जैन कथा रत्न कोष, भाग 4
महापद्म चक्रवर्ती
वर्तमान अवसर्पिणी काल के नौवें चक्रवर्ती सम्राट । उन्होंने अपने बाहुबल से भरत क्षेत्र के षडखण्डों पर विजय पताका फहराकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। सुदीर्घ काल तक विश्व को सुशासन दिया, बाद में नश्वर भोगों का परित्याग कर अनश्वर पद प्राप्ति के लिए अणगार धर्म को अपना कर और कैवल्य साधकर सिद्धत्व का वरण किया। उनके शासनकाल में जिनशासन पर एक अभूतपूर्व संकट भी आया जो इस प्रकार
था
महापद्म के एक ज्येष्ठ भ्राता थे जिनका नाम विष्णुकुमार था। जब महापद्म के पिता महाराज पद्मोत्तर हस्तिनापुर के राजा थे और आयु के चतुर्थ भाग में प्रवेश कर रहे थे तब उन्होंने विष्णुकुमार को राजपद देकर स्वयं दीक्षा लेने का विचार बनाया। इस पर विष्णुकुमार ने राजपद लेने से इन्कार करते हुए स्वयं भी दीक्षा लेने का निर्णय कर लिया । विष्णुकुमार मुनि बनकर मेरु पर्वत पर घोर तप करने लगे। घोर तप से उन्हें अनेक दिव्य लब्धियां और सिद्धियां प्राप्त हो गईं।
विष्णुकुमार द्वारा राजपद ठुकरा देने पर महापद्म ने उसे स्वीकार किया । षड्खण्ड साधकर वे चक्रवर्ती →•• जैन चरित्र कोश •••
*** 428