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बने। उनका एक प्रधान था जिसका नाम नमुचि था। नमुचि चक्रवर्ती का विशेष विश्वासपात्र और कृपापात्र था। पर एक बात थी कि नमुचि जैन श्रमणों से बहुत विद्वेष रखता था । उसके विद्वेष का एक कारण था जो इस प्रकार था - पहले नमुचि उज्जयिनी नरेश श्रीवर्म का अमात्य था । एक बार उज्जयिनी नगरी में सुव्रत नामक जैनाचार्य अपने शिष्य परिवार के साथ पधारे। नमुचि ने आचार्य के एक लघु शिष्य के साथ शास्त्रार्थ किया और पराजित हो गया । वह पराजय को पचा न सका और रात के अन्धेरे में मुनि का वध करने के लिए नंगी तलवार लेकर चल दिया। मुनि के पास पहुंचकर उसने जैसे ही तलवार का प्रहार मुनि पर करना चाहा वैसे ही शासन देव ने उसे उसी रौद्ररूप में स्तंभित कर दिया । उसका हिलना-डुलना बन्द हो गया । प्रभात में लोगों ने उसे उस मुद्रा में देखा तो उसे धिक्कारा। उसकी निन्दा की। राजा को सूचना मिली । उसने उसे अपमानित करके अपने राज्य से निकाल दिया। वहां से निकलकर नमुचि हस्तिनापुर पहुंचा। वहां अपनी कुशलता से चक्रवर्ती महापद्म का विश्वासपात्र बनने में सफल हो गया और उनका प्रधान बन गया । किसी समय नमुचि के कार्य पर महाराज महापद्म अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे इच्छित वर मांगने के लिए कहा। नमुचि ने यथासमय वर मांगने की प्रार्थना के साथ उस वर को सुरक्षित रख लिया ।
एक बार सुव्रताचार्य ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए हस्तिनापुर पधारे। नमुचि को इस की सूचना मिली । उसके भीतर का श्रमण- विद्वेष भभक उठा। अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का उसे यह समुचित अवसर लगा। उसने महापद्म से अपना सुरक्षित वर सात दिनों के लिए षड्खण्डाधिपति होने के रूप में मांग लिया। फलतः नमुचि सात दिनों के लिए चक्रवर्ती बन गया । उसने सुनियोजित साजिश के अनुसार एक विशाल यज्ञ आरम्भ किया। सभी लोग और सभी धर्मों के आचार्य विविध भेंट लेकर नमुचि के पास पहुंचे और नवशास्ता के रूप में उसे बधाइयां देने लगे। इन आगन्तुकों में नमुचि सुव्रताचार्य को खोज रहा था । पर सुव्रताचार्य को न आना था और न वे आए। इससे नमुचि तिलमिला गया । उसने सुव्रताचार्य को अपने पास बुलाया और मदान्ध बनकर बोला- तुम भेंट लेकर क्यों नहीं आए ! या तो भेंट लेकर आइए, वरन मेरे राज्य की सीमाओं से बाहर चले जाइए। तीन दिवस की समय सीमा के भीतर मेरे आदेश का पालन नहीं हुआ तो चोरों की भांति तुम्हारा और तुम्हारे श्रमण संघ का वध करवा दूंगा ।
सुव्रताचार्य चिन्तित मुद्रा के साथ अपने स्थान पर लौट आए। आखिर छह खण्ड को छोड़कर जाएं तो कहां जाएं ? अभूतपूर्व संकट था यह श्रमण संघ पर । उस समय आचार्य को विष्णु मुनि का स्मरण आया। उन्होंने द्रुतगामी एक मुनिको विष्णु मुनि के पास भेजा। मुनि ने विष्णुमुनि के पास जाकर उन्हें श्रमणसंघ पर आए संकट की बात कही। विष्णु मुनि लब्धिबल से आकाशमार्ग से तत्काल हस्तिनापुर पहुंच गए। नमुचि के पास जाकर उन्होंने उसे समझाया कि वह अपना आदेश वापिस ले ले। पर अहंकारी नमुचि कहां मानने वाला था। विष्णु मुनि ने कहा कि वे चक्रवर्ती के सहोदर हैं। कम से कम उन्हें तो रहने के लिए कुछ स्थान दिया जाए। दंभपूर्ण स्वर में नमुचि बोला- मैं तुम्हें तीन कदम जमीन देता हूँ, तुम वहां रह सकते हो।
विष्णु मुनि को लगा कि नमुचि को समझाना आवश्यक हो गया है। उन्होंने लब्धि के प्रयोग से रूप विशाल बना लिया और दो ही कदमों में चक्रवर्ती का पूरा साम्राज्य नाप दिया। फिर बोले- बोल, नमुचि ! तीसरा कदम कहां रखूं ।
विष्णु मुनि के इस रूप से चारों ओर भय व्याप्त हो गया । चक्रवर्ती महापद्म दौड़कर आए और महा के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगे। मुनि ने अपनी लब्धि समेट ली। राजा ने नमुचि को अपमानित करके नगर से निकाल दिया ।
••• जैन चरित्र कोश
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