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वन को मुरझाया देखकर वह विरक्त हो गया और मुनिव्रत धारण कर तप में तल्लीन हो गया । उसे अवधिज्ञान तथा अन्य अनेक लब्धियां प्राप्त हो गईं।
धनदेव का जीव देवलोक से च्यव कर रथनूपुर चक्रवाल नगर में विद्याधरों का चक्रवर्ती सम्राट महेन्द्र सिंह बना। उसकी पटरानी का नाम रत्नमाला था। एक बार रत्नमाला व्याधिग्रस्त हो गई, जिससे उसकी मृत्यु हो गई । महेन्द्र सिंह अपनी रानी की मृत्यु से बहुत दुखी हुआ और उसकी दशा उन्मत्त की - सी हो गई ।
अवधिज्ञानी मुनि मणिप्रभ ने अपने पूर्वभव के मित्र की उक्त दशा देखी । वे मित्र को प्रतिबोध देने रथनूपुर नगर पहुंचे। उनके उपदेश से महेन्द्रसिंह के हृदय का ताप कुछ शान्त हुआ। मुनि ने देखा कि महेन्द्र सिंह का मोह शिथिल तो हुआ है पर निर्मूल नहीं बना है । यह देखकर मुनि मणिप्रभ ने महेन्द्रसिंह को उसके पूर्वभव की कथा सुनाई। अपने पूर्वभव के कथानक को सुनकर महेन्द्रसिंह को जातिस्मरणज्ञान हो गया। ज्ञान से वैराग्य, और वैराग्य से संयम में उत्साह का उत्स उसके हृदय में फूट पड़ा। उसने दीक्षा धारण कर ली । उत्कृष्ट और निरतिचार तप-संयम की अराधना द्वारा मुनि मणिप्रभ और मुनि महेन्द्र केवलज्ञान को प्राप्त कर मोक्ष में गए । - आचार्य मुनिसुन्दर / सोमप्रभाचार्य द्वारा रचित सुमतिनाथ चरित्र से
मदन देव
विशाला नगरी नरेश । (देखिए - हरिबल)
मदनमंजरी
चम्पावती नरेश चित्रकेतु की पुत्री । (देखिए -चंद्रसेन)
मदनरेखा
महासती मदनरेखा का चरित्र जैन इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में उट्टंकित हुआ है। वह सुदर्शन नगर के युवराज युगबाहु की अर्द्धांगिनी थी । सत्यशील को प्राणों पर अधिमान देने वाली मदनरेखा वस्तुतः मदन की रेखा ही थी । परन्तु कभी - कभी सौन्दर्य भी आपदाओं का हेतु बन जाता है। किसी समय मदनरेखा के ज्येष्ठ राजा मणिरथ की दृष्टि उसके रूप लावण्य पर पड़ गई। मणिरथ एक कामी पुरुष था । मर्यादाओं को विस्मृत करके वह अनुज वधू पर आसक्त बन गया और उसे अपनाने के लिए विभिन्न चालें चलने लगा । परन्तु बुद्धिमती मदनरेखा ने उसकी प्रत्येक चाल निष्फल कर दी। इस पर कामान्ध मणिरथ ने एक षडयन्त्र रचा और उसके अनुसार सीमा पर कृत्रिम उपद्रव करवा कर उससे निपटने के लिए अपने अनुज युगबाहु को भेज दिया। मदनरेखा को एकाकी पाकर मणिरथ ने अपना कुत्सित प्रस्ताव उसके समक्ष रखा। मदनरेखा ने सिंहनी बनकर मणिरथ को भयाकुल बना दिया ।
युगबाहु के लौटने पर मणिरथ ने कपट से उसकी हत्या कर दी। इस घटना से मदनरेखा वज्राहत हो उठी। अपने शील की रक्षा के लिए वह जंगलों में चली गई। वहां पर उसने एक शिशु को जन्म दिया। शिशु को एक वस्त्र में लपेट कर उसने वृक्ष की शाखा से बांध दिया और स्वयं पास की नदी में स्नान करने चली गई। उधर एक हाथी ने मदनरेखा को अपनी सूंड में लपेटकर आकाश में उछाल दिया। आकाशमार्ग से मणिप्रभ नामक विद्याधर जा रहा था। उसने मदनरेखा को अपने विमान पर ले लिया । मदनरेखा के लावण्य पर वह विमुग्ध बन गया। उसने उसे अपनी पटरानी बनाने का संकल्प कर लिया।
विद्याधर मणिप्रभ के पिता मणिचूड़ मुनित्व की साधना कर रहे थे। उस समय मणिप्रभ अपने पिता के दर्शन करने जा रहा था । मदनदेखा की चेतना लौटी तो वह मुनि मणिचूड़ के समक्ष थी। मुनि को साक्षात् ••• जैन चरित्र कोश
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