________________
अनुरूप ही दोनों चण्ड प्रकृति की स्वामिनी थीं। दोनों ही विभिन्न विधियों से मदन को परेशान हैरान करती थीं। स्थिति यहां तक जा पहुंची कि मदन को यह लगने लगा कि उसकी पत्नियां उसका वध भी कर सकती हैं । भयभीत मदन ने एक रात्रि में अपना नगर छोड़ दिया। कई दिनों तक निरन्तर वह चलता रहा और संकाश नामक नगर में पहुंचा। वहां भानुदत्त नामक श्रेष्ठी ने मदन का स्वागत किया और उसके साथ अप पुत्री विद्युल्लता का विवाह कर दिया । विद्युल्लता सुन्दर और चतुर थी तथा साथ अनेक दिव्य विद्याएं जानती थी ।
कालक्रम से मदन को पूर्व पत्नियों से भय समाप्त हो गया और उनके प्रति अनुराग भाव उत्पन्न हो गया। उसने विद्युल्लता को अपने पूर्व जीवन से परिचित कराया और पूर्व पत्नियों के प्रति अपने अनुराग की बात कही। मदन ने कहा कि अब उसे कुशस्थल लौटकर अपनी पत्नियों के सुख-दुख का पता करना चाहिए। विद्युल्लता को सौतों के प्रति अपने पति का अनुराग सहन नहीं हुआ। पर उसने हृदय के भाव को प्रगट नहीं किया। उसने अभिमन्त्रित पाथेय मदन को देकर विदा कर दिया। मार्ग में मदन को भूख लगी तो वह भोजन करने बैठा । उसी समय वहां पर एक संन्यासी आ गया । मदन हृदय में अतिथि सत्कार का भाव उदय हुआ। उसने संन्यासी से भोजन करने की प्रार्थना की। संन्यासी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। मदन ने संन्यासी को भोजन कराया। सहसा एक दुर्घटना घटी। भोजन करते ही संन्यासी बकरा बन गया और किसी अदृश्य शक्ति से प्रेरित बनकर संकाश नगर की ओर चल पड़ा। हैरान-परेशान बनकर मदन बकरे के पीछे-पीछे चल दिया। बकरा विद्युल्लता के घर पहुंचा। बकरे को देखते ही विद्युल्लता क्रोधित बनकर डण्डे से उसे मारने लगी। मदन वस्तुस्थिति को समझ गया और वहां से भाग छूटा। वह हसंतीपुर नगर में जा पहुंचा और वहां भगवान आदिनाथ के चैत्य में बैठकर अपनी स्थिति पर आंसू बहाने लगा। वहां पर उसे धनदेव नामक एक तरुण मिला। दोनों की परस्पर मैत्री हो गई । मदन ने धनदेव को अपनी स्थिति से अवगत कराया । सुनकर धनदेव ने मदन को मधुर वचनों से आश्वस्त किया और कहा कि उस की अपनी स्थिति उससे भी बदतर है। मदन द्वारा पूछने पर धनदेव ने अपनी आत्मकथा उसे सुनाई ।
धनदेव ने कहा, वह इसी नगरी का रहने वाला है और उसकी भी दो पत्नियां हैं जो स्वच्छन्दाचारिणी हैं। दोनों ही दिव्य विद्याओं में पारंगत भी हैं। एक बार दैव -वश उसे एक अन्य कन्या से विवाह करना पड़ गया । कुपित होकर पहली पत्नियों ने उसे शुक बना दिया। कई वर्षों तक वह शुक-योनि में रहा और पत्नियों की कटूक्तियां सहन करता रहा। कुछ पुण्योदय हुआ तो नई पत्नी ने उसे शुक योनि से मुक्ति दी, क्योंकि वह भी अनेक दिव्य विद्याओं की स्वामिनी थी । पूर्व पत्नियों ने उसे बाढ़ में डुबोकर मारने का यत्न किया, पर नई पत्नी ने पुनः उसकी रक्षा की। नई पत्नी की शक्ति से परिचित होकर पूर्व पत्नियां हतोत्साहित नहीं बल्कि उन्होंने मिलकर नई पत्नी को भी अपने अनुकूल बना लिया। परिणाम यह हुआ कि वे तीनों स्वच्छन्दाचारिणी हो गईं और मेरी दुश्मन बन गईं।
धनदेव ने अपनी बात पूरी करते हुए कहा, मित्रवर! उन तीनों पत्नियों से संत्रस्त बनकर मैं विरक्त हो गया हूँ और मुनि दीक्षा धारण कर छलछद्म से भरे संसार से मुक्त होना चाहता हूँ । धनदेव के वैराग्य से प्रभावित बनकर मदन भी दीक्षा लेने को तैयार हो गया। दोनों मित्रों ने आचार्य विमलबाहु से प्रव्रज्या धारण की और तप-संयम की आराधना में लीन हो गए। आयुष्य पूर्ण कर दोनों सौधर्म कल्प में देव बने ।
देवायु पूर्ण कर मदन का जीव विजयपुर नगर का राजकुमार बना जहां उसे मणिप्रभ नाम प्राप्त हुआ। मणिप्रभ पिता के बाद राजसिंहासन पर बैठा और उसने बहुत वर्षों तक राज्य किया। किसी समय कम जैन चरित्र कोश •••
*** 414