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किसी वन्य प्राणी के प्रति जीवन में प्रथम बार राजकुमार के हृदय में अनुराग का भाव जन्मा । मृगी और राजकुमार दोनों परस्पर एक-दूसरे को देख रहे थे । राजकुमार कुछ समझ न सका। उसे चिन्तन जगा, संभव है कि इस मृगी से मेरा कोई पूर्वजन्म का सम्बन्ध हो । तीर्थंकर महावीर राजोद्यान में विराजित हैं, वही मेरे प्रश्न का समाधान कर सकते हैं।
राजकुमार भगवान महावीर के चरणों में पहुंचा। राजकुमार की जिज्ञासा पर भगवान ने उसकी शंका का समाधान करते हुए फरमाया - राजकुमार ! तुम्हारा इस मृगी के जीव के साथ पूर्व भव में स्नेह-सम्बन्ध रहा है। घटना इस प्रकार है- साकेत नगर में प्रियंकर नामक एक युवक का सुन्दरी नामक एक श्रेष्ठि-पुत्री से विवाह हुआ था। पति-पत्नी के मध्य तीव्र अनुराग भाव था। दुर्दैववश पति की आकस्मिक मृत्यु से सुन्दरी को गहरा आघात लगा । उसने पति के शव का संस्कार नहीं करने दिया। पति के शव को लेकर वह जंगल में चली गई। उसे विश्वास नहीं था कि उसके पति का देहान्त हो चुका है। कई मास तक वह पति के शव के साथ वन में भटकती रही। बाद में एक धार्मिक युवक ने एक युक्ति को आधार बनाकर सुन्दरी को संबोधि दान दिया । सुन्दरी नगर में लौट आई और धर्मध्यान पूर्वक जीवन यापन करने लगी ।
भगवान ने स्पष्ट किया, राजकुमार ! उस भव में तुम ही सुन्दरी थे और यह मृगी तुम्हारे पति के रूप में थी। आज तुम एक दसरे को देखकर अतीत के अनुराग में बंध गए हो।
अपने पूर्वभव की कथा सुनकर राजकुमार मणिरथ विरक्त हो गया । उसने प्रभु के चरणों में दीक्षा धारण कर ली और संयम का पालन कर सुगति प्राप्त की ।
- कुवलयमाला कहा
मणिरथ (राजा)
सुदर्शन नगर का राजा । वह एक कामान्ध पुरुष था । किसी समय उसने अनुज वधू मदनरेखा को उसके महल की छत पर शृंगार करते देखा । वह अनुजवधू पर आसक्त बन गया। उसने एक षडयन्त्र रचा और अपने अनुज युगबाहु को सीमा पर युद्ध के लिए भेज दिया। अपने मार्ग को निष्कण्टक पाकर उसने मदनरेखा से अपना कुत्सित प्रस्ताव कहा जिसे मदनरेखा ने घृणा से अस्वीकार कर दिया । पर कामान्ध मणिरथ किसी भी शर्त पर अनुजवधू को अपनी पत्नी बनाना चाहता था। इसीलिए उसने युद्ध से लौटने पर अपने भाई युगबाहु की कपट पूर्वक हत्या कर दी। परन्तु वह स्वयं भी अधिक देर जीवित न रह सका। अन्धकार में भागते हुए मणिरथ को एक सर्प ने दंश लिया । वह उसी क्षण धराशायी हो गया और मरकर नरक में गया। (देखिए-मदनरेखा)
मणिशेखर
वसन्तपुर के कोटीश्वर श्रेष्ठी धनदत्त का इकलौता पुत्र, एक दृढ़ प्रतिज्ञयी और महत्संकल्पी युवक । मणिशेखर की नगर में अच्छी प्रतिष्ठा थी । वह सर्वांग सुन्दर, बलिष्ठ, विनीत और मृदुभाषी था। मणिशेखर के जीवन में मोड़ तब आया जब वह कुछ चापलूस मित्रों पर विश्वास कर बैठा । मित्र दुर्व्यसनी थे। संगत की रंगत से मणिशेखर मुक्त न रह सका और चौर्य कर्म में लिप्त बन गया। कुछ ही दिनों में वह नामी चोर बन गया। वह इतनी कुशलता और सफाई से चोरियां करता था कि किसी की पकड़ में नहीं आता था। धनदत्त पुत्र की प्रवृत्ति से परिचित थे और उन्होंने हजार-हजार ढंगों से पुत्र को चौर्य कर्म छोड़ने के लिए मनाया था । पर मणिशेखर को चोरी करने में ऐसा रस आता था कि उसने पिता की सीखों को नजरंदाज कर दिया। प्रतिदिन की चोरियों से नगर में भय का वातावरण निर्मित हो चुका था। नागरिकों ने राजा से चोर से जैन चरित्र कोश •••
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