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रक्षा की गुहार की। राजा ने महामंत्री मतिसागर को चोर को पकड़ने का दायित्व सोंपा। मतिसागर बुद्धिमान मंत्री था। उसकी पैनी नजरों ने चोर को पहचान लिया, पर बिना प्रमाण के वे चोर को पकडें भी तो कैसे? मतिसागर ने मणिशेखर को उसके कुल-गौरव का वास्ता देकर उसे चौर्य कर्म से निवृत्ति की सलाह दी। पर मंत्री की सलाह का भी मणिशेखर पर कोई प्रभाव नहीं हुआ।
पुण्ययोग से आचार्य धर्मघोष वसंतपुर पधारे। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के ज्ञाता आचार्यश्री ने अपने उपदेश में चोरी के दुष्परिणाम पर प्रकाश डाला। मणिशेखर भी श्रोता परिषद में उपस्थित था। उपदेश परिसमाप्ति पर सभी ने आचार्य श्री से कोई न कोई नियम-व्रत अंगीकार किया। मणिशेखर की बारी आई। मणिशेखर ने कहा, आचार्य देव! चोरी न करने के त्याग के अतिरिक्त आप कोई भी एक त्याग मुझे करा दीजिए। प्राण देकर भी मैं प्रण का पालन करूंगा।
आचार्य श्री ने मणिशेखर को सत्य बोलने का नियम करा दिया। मणिशेखर महत्संकल्पी तो था ही। सो उसने अन्तरात्मा से यह संकल्प कर लिया कि वह जीवन में कभी झूठ नहीं बोलेगा। __चौर्यकर्म और सत्यसंभाषण परस्पर विरोधी बातें थीं पर इस विरोधाभास को मणिशेखर ने सफलता पूर्वक जीया। मंत्री जब चोर को रंगे हाथों पकड़ने में असफल रहा तो स्वयं राजा ने चोर को पकड़ने का बीड़ा उठाया। पर राजा को भी उसमें सफलता न मिली। बल्कि उसी रात्रि में राजा के राजकोष को मणिशेखर ने अपना लक्ष्य बना दिया। राजा हैरान-परेशान था। उसने मंत्री से गहन विचार-मन्थन किया। मंत्री के बताने पर राजा चोर को जान तो गया पर बिना प्रमाण के वह मणिशेखर को पकड़ नहीं सकता था। आखिर मंत्री की मंत्रणा पर राजा ने एक योजना बनाई। उसने मणिशेखर को अपने पास बुलाया और महामंत्री पद का दायित्व उसे प्रदान करते हुए कहा, नागरिकों की सुरक्षा का दायित्व अब तुम्हारे कन्धों पर है, आशा है तुम अपने दायित्व के संवहन मे सफलता प्राप्त करोगे।
राजा का तीर निशाने पर लगा। मणिशेखर पर राज्य रक्षा का भार आ चुका था। रक्षक भक्षक कैसे बने इस विचार ने मणिखेशर के हृदय से चौर्य के मैल को धो डाला। यही एक दुर्गुण उसके जीवन में था जिसके धुल जाने पर वह एक श्रेष्ठ नागरिक बन गया। उसने शेष जीवन धर्माराधना करते हुए व्यतीत किया। आचार्य धर्मघोष से उसने श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए और उनका निरतिचार पालन करते हुए वह उत्तम गति का अधिकारी बना। (क) मतिसागर
श्रीपुर नगर के राजा जितारि का महामंत्री मतिसागर अत्यंत बुद्धिसम्पन्न एवं धर्मप्राण पुरुष था। राजा जितारि धर्म-कर्म पर विश्वास नहीं करता था। उसे अपने धन और बल पर अहं था। वह सोचता था कि जिसके पास धन और सत्ता है वही श्रेष्ठ और सम्माननीय है। अपनी इसी मान्यता के कारण राजा अपने धन और बल को बढ़ाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहता था। __राजा और मतिसागर में परस्पर मैत्री सम्बन्ध थे। फलतः पारस्परिक वार्ताओं में मतिसागर राजा को धर्म की महिमा समझाता रहता था। पर राजा धर्म की महिमा को कल्पित विश्वास से अधिक मानने को तैयार नहीं था। एक बार धर्म के विषय पर वार्ता करते हए राजा और मंत्री मतिसागर अपने-अपने पक्ष पर कठोरता से डट गए। राजा ने मंत्री से कहा, तुम्हारे धर्म की महिमा मैं तब मान सकता हूँ जब तुम रिक्त हाथों से मेरे देश से दूर जाकर धर्म के प्रभाव से समृद्धि सृजित करो। मंत्री ने राजा की चुनौती को स्वीकार ... जैन चरित्र कोश ...
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