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नाट्यविधि का प्रदर्शन कर रहा है। मकरध्वज मुनि के चरणों में जाकर बैठ गया । नाट्य-विधि पूर्ण कर यक्ष अदृश्य हो गया। मुनि ने ध्यान पूर्ण किया। मकरध्वज ने मुनि को प्रणाम कर यक्ष का परिचय उनसे पूछा । मुनि ने बताया कि वह यक्ष पूर्वजन्म में एक सेठ था और उसने एक मुनि से सत्य बोलने का नियम लिया था। पर वह ग्रहीत नियम का निरतिचार पालन नहीं कर सका। उस पर भी वह यक्ष जाति में उत्पन्न हुआ है । यदि वह ग्रहीतव्रत का निरतिचार पालन करता तो महा ऋद्धिशाली वैमानिक देव बनता। मुनि की बात सुनकर राजकुमार मकरध्वज को व्रत - महिमा का ज्ञान हुआ। उसने मुनि से सदा सत्य बोलने का नियम ले लिया । नियम लेकर वह अपने महल की ओर चल दिया।
मकरध्वज की सत्य की परीक्षा लेने के लिए वह यक्ष उससे पहले ही नगर में पहुंच गया। उसने मानव रूप धारण कर राजा से शिकायत की कि जंगल से उसके चार वंशमुक्ता मोती किसी ने चुरा लिए हैं। अतः चोर को पकड़कर उसके मोती दिलाएं । राजा ने नगर में पटह बजवा दी और चोर को पकड़ने वाले के लिए पुरस्कार की घोषणा की।
मकरध्वज ने भी घोषणा सुनी। वह निर्भय चित्त से महाराज के पास पहुंचा। उसने मोती राजा को अर्पित करते हुए कहा कि उसने मोती चुराए नहीं हैं, बल्कि एक स्थान पर बांसों के झुरमुट से प्राप्त किए हैं ।
यक्ष ने मकरध्वज की सत्यवादिता देखी । वह अतीव प्रसन्न हुआ। वास्तविक रूप में प्रगट होकर उसने मकरध्वज की प्रशंसा 'और स्वर्णवृष्टि करके अदृश्य हो गया।
पुत्र के पुण्य प्रभाव और देव द्वारा उसकी अर्चा देख राजा गद्गद हो गया। मकरध्वज को राजपाट देकर वह प्रव्रजित हो गया। मकरध्वज ने प्रलम्ब काल तक प्रजा का पुत्रवत् पालन किया। आयु के उत्तर पक्ष में संयम धारण कर वह आठवें देवलोक में गया । भवान्तर में वह सिद्धि प्राप्त करेगा ।
- जैन कथा रत्न कोष भाग 6 / बालावबोध (गौतमकुलक)
(ख) मकरध्वज
वाराणसी नगरी का राजा । (देखिए - उत्तम कुमार)
मघवा (चक्रवर्ती)
पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ जी के शासन काल में हुए मघवा श्रावस्ती नगरी के महाराज समुद्रविजय की पटरानी भद्रा के अंगजात थे । युवावस्था में उनका अनेक राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। उन्होंने छह खण्डों को साधकर चक्रवर्ती पद पाया। वे तृतीय चक्रवर्ती बने । आयु के अन्तिम भाग में संयम ग्रहण करके उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। वे मोक्ष में गए।
- उत्तराध्ययन सूत्र
मच्छियमल्ल
एक बलवान मछेरा, जिसके बलिष्ठ और सुगठित शरीर से प्रभावित होकर राजा सिंहगिरि ने उसे मल्ल विद्या में प्रवीण बनाया। वह मच्छियमल्ल नाम से ख्यात हुआ ।
मणिचन्द्र
देव, गुरु और धर्म पर अनन्य आस्था रखने वाला एक दृढ़धर्मी श्रावक, कनकपुरी नगरी का कोटीश्वर श्रेष्ठ और सम्मानित नगर सेठ । उसने जनकल्याण के लिए अनेक दानशालाएं खोली थीं, धर्मशालाओं और • जैन चरित्र कोश •••
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