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दिशा में भागी । उसे कंचनपुर के श्रेष्ठी श्रीधर के घर शरण मिली। श्रीधर मंजुला पर पितृ स्नेह उंडेलते थे, पर सशंकिता सेठानी ने मंजुला को एक गणिका के हाथ बेच दिया। वहीं पर मंजुला का अपने पुत्र से मिलन हुआ । परन्तु यह मिलन भी क्षणिक सिद्ध हुआ । पुनः माता और पुत्र बिछुड़ गए।
श्रीकांत बनजारे द्वारा स्वस्थ किया गया। बनजारे से गारुड़ी विद्या सीखकर श्रीकांत आगे बढ़ा । पिता-पुत्र का मिलन हुआ। दोनों मंजुला को खोजते खोजते वाराणसी पहुंचे । पुण्योदय से श्रीकान्त वाराणसी नगरी का राजपद पा गया। आखिर इसी नगरी में पिता और पुत्र का मंजुला से मिलन हुआ। दुखों के विकराल चक्रव्यूह में प्रलम्ब काल तक भटक कर भी मंजुला ने अपने शील की रक्षा की।
सुदीर्घ काल तक साम्राज्ञी के सुखासन पर रहकर मंजुला ने संयम ग्रहण कर आत्मकल्याण किया । पिता श्रीकान्त और पुत्र कुसुमसेन ने भी महासती का अनुगमन कर आत्मार्थ को साधा।
मंडितपुत्र ( गणधर )
भगवान महावीर के षष्ठम गणधर । मौर्य ग्रामवासी वासिष्ठ गोत्रीय धनदेव ब्राह्मण और उनकी पत्नी विजयादेवी इनके पिता और माता थे। ये सुख्यात वेद विद्वान थे और सोमिल ब्राह्मण द्वारा आयोजित यज्ञ में अपने साढ़े तीन सौ शिष्यों के साथ सम्मिलित हुए थे। ये भगवान महावीर को शास्त्रार्थ में पराजित करना चाहते थे पर स्वयं पराजित होकर अपने छात्रों के साथ भगवान के शिष्य बन गए। बंधन और मोक्ष के संदर्भ में इनकी शंका का भगवान ने समाधान किया था ।
मंडितपुत्र ने चौवन वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की, अड़सठवें वर्ष में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ तिरासी वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर वे मोक्षगामी हुए ।
मंडुक
(देखिए-शैलक राजर्षि)
मंदोदरी
लंका के राजा रावण की पटरानी । युद्ध में रावण की मृत्यु के पश्चात् उसका हृदय वैराग्य से भर गया । केवली मुनिवर श्री अप्रमेयबल के श्रीमुख से अपना पूर्वभव सुनकर उसका वैराग्य परिपक्व बन गया और उसने प्रव्रज्या अंगीकार कर ली। साधना द्वारा उसने सद्गति का अधिकार पाया। जैन तथा जैनेतर रामायणों के उल्लेखानुसार मन्दोदरी अपने युग की परम सुरूपा तथा पतिपरायणा सन्नारी थी । उसने रावण को सदैव इस बात के लिए प्रेरित किया था कि वह सीता को ससम्मान श्रीराम को लौटा दे।
(क) मकरध्वज
कांति नामक नगरी का परम उदार और परम पुण्यवान राजकुमार। एक बार उसने एक ही दिन में याचकों को एक करोड़ स्वर्णमुद्राएं दान में दे दीं। इससे उसका पिता राजा वैरिदमन उस पर नाराज हो गया। उसने पुत्र से कहा, तुमने एक ही दिन में एक करोड़ स्वर्णमुद्राएं दान कर दीं। इतनी ही स्वर्णमुद्राएं तुम एक दिन में अर्जित कर सको तो घर आना, अन्यथा मेरे राज्य से दूर चले जाना ।
मकरध्वज ने पिता के कथन का बुरा नहीं माना। उसे पिता का आशीर्वाद मान कर वह घर से निकला । जंगल में उसे पुण्य प्रभाव से करोड़ों रुपये मूल्य के चार वंशमुक्ता मोती मिले। उन्हें प्राप्त कर वह घर की ओर चला। मार्ग में उसे संगीत स्वर सुनाई पड़े। वह उधर गया। उसने देखा, एक यक्ष एक मुनि के समक्ष ••• जैन चरित्र कोश +
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