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शेष है। पवनंजय दीर्घजीवी है। महाराज ने दीर्घजीवी पवनंजय से अंजना का सम्बन्ध कर दिया। ___उचित समय पर महाराज प्रह्लाद अपने पुत्र पवनंजय की बारात सजाकर महेन्द्रपुर आए। विवाह के महत में अभी तीन दिन शेष थे। रात्रि के समय पवनंजय के मन में अपनी होने वाली पत्नी को देखने का भाव जगा। अपने अंतरंग मित्र प्रहसित के साथ वह अंजना के महल के पास पहुंचा और दीवार की ओट लेकर सखियों से घिरी बैठी अंजना को देखने लगा। सखियां अंजना के भावी पति के बारे में ही चर्चा कर रही थीं। कोई पवनंजय की प्रशंसा कर रही थी तो कोई विद्युत्प्रभ की। बीच में अंजना ने कहा, विद्युत्प्रभ को धन्य है जो भोगों का त्याग कर मोक्ष प्राप्त करेगा। अंजना के इस वचन को सुनकर पवनंजय को लगा कि वह विद्युत्प्रभ के प्रति आकर्षित है। पवनंजय उसी क्षण अंजना का त्याग करने को तत्पर हो गया। पर पितृवचन की अवहेलना न हो इसलिए उसने विवाह के पश्चात् अंजना का त्याग करने का निश्चय कर लिया। विवाह होने पर अंजना पितृ-गृह का त्याग कर पति-गृह में आई। पर पवनंजय तो उसे अपनाने से पूर्व ही त्याग चुका था। अंजना की पति-प्रतीक्षा प्रतीक्षा ही बनी रही। कहते हैं कि बारह वर्षों तक पवनंजय ने अपना चेहरा भी अंजना को नहीं दिखाया।
__ पर अंजना ने कभी पति को दोष नहीं दिया। अपने कर्मों का दोष ही वह मानती रही। एक बार जब रावण के आदेश पर पवनंजय वरुण से युद्ध करने जा रहा था तो साहस करके अंजना पति को शकुन देने आई। पवनंजय ने ठोकर मारकर न केवल उसके शकुन पात्र को गिरा दिया, बल्कि उसे अपशब्दों से अपमानित भी किया। इस पर भी अंजना ने पति के अहित का चिंतन नहीं किया। सेना के साथ पवनंजय ने प्रस्थान किया। रात्रि विश्राम के लिए जंगल में पड़ाव डाला। जिस वृक्ष के नीचे पवनंजय ठहरा था, उस वृक्ष पर चकवा-चकवी युगल का घोंसला था। प्रकृति के नियमानुसार चकवा और चकवी रात्रि में परस्पर मिल नहीं सकते। अलग-अलग शाखाओं पर बैठे चकवा-चकवी क्रन्दन कर रहे थे। पवनंजय उस क्रन्दन को सहन न कर सका। उसने अपनी हृदय-व्यथा मित्र प्रहसित से कही। प्रहसित ने प्राकृतिक नियम की बात कही। पवनंजय को तत्क्षण अंजना का ख्याल हो आया जो बारह वर्षों से परित्यक्ता का जीवन जी रही थी। मित्र के मशविरे पर रात्रि में ही पवनंजय विद्या-बल से अंजना के महल में पहुंचा और उससे क्षमा मांगी। क्षण-भर में ही अंजना बारह वर्षीय विरह-रात्रि को भल गई। पति-पत्नी का मधर मिलन हआ। निशानी के रूप में अपनी मुद्रिका अंजना को देकर पवनंजय सूर्योदय से पूर्व ही छावनी में पहुंच गया।
उधर युद्ध में पवनंजय को कई महीने लग गए। यथासमय अंजना में गर्भ के लक्षण प्रकट हुए तो सास-श्वसुर ने उसे कलंकिनी घोषित करके महलों से निकाल दिया। अंजना की कोई बात नहीं सुनी गई। अपनी दासी के साथ अंजना अपने पिता के नगर में पहुंची पर दुष्कर्मों के वेग इतने प्रबल थे कि वहां उसे शरण तो क्या मिलनी थी, पानी की बूंद तक नहीं मिली। आखिर जंगल में एक पर्वत-गुफा में अंजना ने एक 'पुत्र को जन्म दिया। इसी के साथ उसके भाग्य ने पलटा खाया और उसका मामा उसे अपने नगर ले गया, जहां अंजना के पुत्र को हनुमान नाम दिया गया।
युद्ध जीत कर पवनंजय लौटे। अंजना को न पाकर और वस्तुस्थिति जानकर अचेत हो गए। चेतना लौटने पर उन्होंने प्रण किया कि जब तक अंजना को नहीं देख लेंगे तब तक अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे।
आखिर अंजना को ससम्मान लाया गया। आगे का जीवन सखपूर्वक रहा। अंत समय में पवनंजय और 'अंजना दीक्षित हो स्वर्गस्थ हुए।
-अंजना चरित्त ": जैन चरित्र कोश ...
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