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अंजन चोर
राजगृह नगरी के निकटवर्ती गिरि-गुफाओं में रहने वाला एक चोर । उसके पास दिव्य अंजन था, जिसे आंखों में आंजने पर वह अदृश्य हो जाता था । इसीलिए वह उक्त नाम से प्रसिद्ध हो गया था ।
राजगृह नगर में ही एक धर्मात्मा सेठ रहता था, जिसका नाम 'जिनदत्त' था। जिनदत्त जैन धर्म का अनन्य अनुरागी था । श्रमणों के प्रति उसके हृदय में सुदृढ़ श्रद्धाभाव था । उसे गगनगामिनी विद्या सिद्ध थी । उस विद्या का उपयोग वह केवल तीर्थंकर देव के दर्शनार्थ गमनागमन में करता था, अन्य लौकिक कार्यों में नहीं ।
जिनदत्त का एक विनम्र सेवक था, जिसका नाम रामदत्त था । रामदत्त की सेवाभक्ति से प्रसन्न होकर जिनदत्त ने उसे गगनगामिनी विद्या सिखा दी । विद्यासिद्धि के लिए रामदत्त जंगल में गया। सेठ द्वारा निर्देशित विधि के अनुसार उसने पूरा उपक्रम किया। एक विशाल टोकरे के छोरों पर एक सौ आठ रस्सियां बांधीं । वृक्ष की शाखा से वह टोकरा बांध दिया। टोकरे के ठीक नीचे भूमि पर तीक्ष्ण भाले-बछियां स्थापित किए गए। इस पूरे उपक्रम को पूर्ण कर रामदत्त टोकरे में जा बैठा और नवकार मंत्र उच्चारित करने लगा । नवकार मंत्र के प्रत्येक उच्चारण के साथ उसे एक-एक रस्सी को काटना था । परंतु उसका हृदय संदेहशील था कि कहीं रस्सियों को काट देने से वह भूमि पर आ गिरे और भालों से बिंध जाए। वह बार-बार मंत्र का उच्चारण करता पर रस्सियों को काटने का साहस न जुटा पाता ।
उधर संयोग से अंजन चोर सैनिकों द्वारा घेर लिया गया। वह भूलवश अंजन को अपने निवास पर ही छोड़ गया था। वह भागता हुआ उसी स्थान पर आ गया, जहां रामदत्त विद्या सिद्ध कर रहा था। उसे देखकर अंजन चोर समझ गया कि संदेहशील होने से वह विद्या सिद्धि में पुनः पुनः असफल हो रहा है। उसने शीघ्रता से रामदत्त से मंत्र सीखा और स्वयं विद्या - सिद्धि की इच्छा प्रगट की । रामदत्त ने अंजन को अनुमति दे दी । देखते-ही-देखते अंजन चोर टोकरे में जा बैठा और सुदृढ़ विश्वास के साथ मन्त्रोच्चार करते हुए क्रमशः रस्सियों को काट डाला। सभी रस्सियों के कटते ही टोकरा भूमि पर जा गिरा और अंजन चोर आकाश में उड़ गया। यह घटना अल्प समय में ही घट गई। जब तक सैनिक वहां पहुंचे, अंजन चोर आकाश में उड़ चुका था ।
रामदत्त को एक शिक्षा सूत्र मिला कि संशय विफलता का एवं श्रद्धा सफलता का मूल कारण है ।
कालान्तर में अंजन चोर ने जान लिया कि जिनदत्त श्रेष्ठी से ही उसे गगनगामिनी विद्या प्राप्त हुई है। जिनदत्त को उसने अपना प्राण-रक्षक माना। उसने सेठ जी से मैत्री स्थापित की। सज्जनों की मैत्री सर्व श्रेष्ठताओं IT द्वार होती ही है। जिनदत्त के साथ अंजन चोर भी श्रमणों के दर्शनों के लिए जाने लगा। उसने चौर्य कर्म का परित्याग कर दिया और सागार धर्म का अनुगामी बन कल्याण पथ का पथिक बन गया ।
अंजना
जैन और वैदिक रामायणों तथा पौराणिक कथा साहित्य के अनुसार एक पतिपरायण सन्नारी, वीरवर हनुमान की जननी । महेन्द्रपुर नरेश महाराज महेन्द्र अंजना के पिता और उनकी रानी हृदयसुन्दरी अंजना की माता थी। अंजना सौ भाइयों की इकलौती बहन थी। जब वह युवा हुई तो उसके लिए अनेक राजकुलों से वैवाहिक प्रस्ताव आए। महाराज महेन्द्र को दो राजकुमार पसन्द आए - राजकुमार विद्युत्प्रभ और पवनंजय । निमित्तज्ञों से महाराज को ज्ञात हुआ कि विद्युत्प्रभ चरम शरीरी है और उसका आयुष्य अठारह वर्ष का ही **• जैन चरित्र कोश •••
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