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अपनी नगरी में ले गया। अपने घर पहुंचकर सेठ ने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और भुवनसुंदरी से काम-निवेदन किया। विश्वास को खण्डित बनते देखकर भुवनसुंदरी का हृदय दहल गया। उसने सेठ को नरम और सख्त शब्दों में चेताया । पर सेठ बल-प्रयोग पर उतर आया तो शील का चमत्कार घटित हुआ । सेठ के शरीर से उसी क्षण कुष्ठ फूट पड़ा ।
सेठ के घर से निकलकर भुवनसुंदरी इन्द्रपुरी के मार्ग पर बढ़ चली। राजा प्रद्युम्न ने इन्द्रपुरी भुवनसुंदरी के माता-पिता के पास पहले ही यह सूचना प्रेषित करा दी थी कि भुवनसुंदरी ने अपने कलुषित चरित्र से दोनों कुलों को कलंकित किया है। परिणामतः माता-पिता ने भी भुवनसुंदरी को द्वार से ही धक्के दे दिए । भुवनसुंदरी ने माता-पिता से अपना अपराध पूछना चाहा, पर उसकी एक भी बात माता-पिता ने नहीं सुनी। पिता ने अपने पुत्र मधुकर को आदेश दिया कि वह भुवनसुंदरी को जंगल में ले जाए और वहां उसका वध
। मधुकर अपनी बहन भुवनसुंदरी को जंगल में ले गया। उसने भुवनसुंदरी का वध करने के लिए जैसे ही तलवार ऊपर उठाई, वैसे ही शील सहायक देवी वहां अवतरित हुई, उसने घोषणा की, भुवनसुंदरी महासती है, सती शिरोमणि है । उसकी हत्या नहीं, रक्षा की जाए। देवी के वचन सुनकर मधुकर बहिन के चरणों पर अवनत हो गया। उसने भुवनसुंदरी को घर चलने के लिए कहा। परन्तु भुवनसुंदरी ने घर लौटने से इन्कार कर दिया और कहा कि वह वन में रहकर अपने पूर्वोपार्जित कर्मों का भोग भोगेगी। मधुकर ने भी बहिन के साथ रहकर उसकी सेवा करने का संकल्प किया।
भाई-बहिन आगे बढ़े। भुवनसुंदरी को प्यास लगी तो मधुकर जल की तलाश में गया। दूर-दूर भटका, पर कहीं भी पानी की एक बूंद उसे प्राप्त नहीं हुई । भटकते-भटकते प्यास से विह्वल बनकर वह अचेत हो गिर पड़ा । भुवनसुंदरी भी प्यास के कारण अचेत हो गई। उधर क्षितिपुर का राजा वीरसेन शिकार खेलने गया था । भुवनसुंदरी को वनकन्या मानकर वह उसे उठाकर अपने नगर में ले गया। शीतलोपचार से भुवनसुंदरी की चेतना लौटी। वीरसेन ने भुवनसुंदरी से काम प्रस्ताव किया । भुवनसुंदरी अपने भाग्य पर आंसू बहाने लगी। वह पुनः पुनः पुरुष के पतन को देख रही थी। उसने वीरसेन को चेतावनी दी कि यदि उसने दुःसाहस दिखाया तो वह आत्महत्या कर लेगी। पर वीरसेन का विवेक तो विलुप्त हो चुका था ! वह महासती पर झपटा, पर शील का चमत्कार महासती के साथ था। वीरसेन पैर फिसलकर धराशायी हो गया और उसके शरीर की कई अस्थियां एक साथ भग्न हो गईं। अपने शील की रक्षा के लिए भुवनसुंदरी पुनः वन में चली गई ।
उधर चन्द्रपुरी का एक सार्थवाह मूर्च्छित मधुकर को अपने यान में रखकर अपने नगर ले गया। मधुकर स्वस्थ हो गया। सार्थवाह निःसंतान था और उसने मधुकर को अपना पुत्र बनाकर अपने साथ रख लिया ।
वन में भुवनसुंदरी अपनी स्थिति पर चिन्तन कर रही थी। सहसा एक देव प्रकट हुआ। उसने भुवनसुंदरी सत्य और शील की स्तुति की और कहा कि महासती अब तुम्हारे अपुण्य समाप्त हो चुके हैं। शीघ्र ही तुम्हारी यशःकीर्ति संसार में व्याप्त होगी और तुम्हें तुम्हारे पति का सान्निध्य प्राप्त होगा। देव ने भुवनसुंदरी को दो रत्न दिए और उनका महात्म्य बताया। प्रथम रत्न से मनोवांछित रूप धारण किया जा सकता है और द्वितीय रत्न से समस्त रोगों का उपचार किया जा सकता है। दिव्य रत्न पाकर भुवनसुंदरी ने अपना रूप बदला और वह युवायोगी बन गई। वह शीघ्र ही चन्द्रपुरी के लिए प्रस्थित हो गई ।
उधर प्रतापसेन रणक्षेत्र से लौटा तो प्रद्युम्न अन्धा बन चुका था। प्रद्युम्न ने अपने अन्धेपन को गर्मी की अधिकता का परिणाम बताया तथा भुवनसुंदरी के कल्पित दुश्चरित्र का आख्यान प्रतापसेन को सुनाकर ••• जैन चरित्र कोश
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