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परित्याग कर उसने कुवलयचंद्र केवली से दीक्षा धारण कर ली। मोह, अज्ञानादि आत्मरिपुओं को नष्ट कर उसने कैवल्य पद पाया। बलि मुनि ही जगत में भुवनभानु केवली के नाम से सुख्यात हुए । असंख्य भव्य जीवों के लिए कल्याण का द्वार बनकर वे मोक्ष पधार गए।
-भुवनभानु केवली चरित
(क) भुवनसुंदरी
चन्द्रपुरी के युवराज प्रतापसेन की अर्द्धांगिणी, एक सुशीला और परम पतिव्रता सन्नारी । वह अपने नाम के अनुरूप ही सुंदरी और सुरूपा भी थी। वह अनन्य भाव से जिनोपासिका और सहिष्णुता की साक्षात् प्रतिमा थी। उस पर कष्टों के पहाड़ टूटे, पर उन कष्टों को उसने अपने पूर्वकृत कर्मों का उपभोग ही माना । अपकारियों पर भी उपकार कर उसने नारी की देह में नारायणी के आदर्श की स्थापना की। उसका संक्षिप्त परिचय क्रम इस प्रकार है
प्रद्युम्न चंद्रपुरी का राजा था। उसका अनुज प्रतापसेन युवराज था । भुवनसुन्दरी प्रतापसेन की पत्नी और युवराज्ञी थी। एक बार राजा प्रद्युम्न अपने महल की छत पर टहल रहा था । भुवनसुंदरी भी किसी कार्यवश अपने महल की छत पर चली गई। राजा की दृष्टि अनुजवधू पर पड़ी। वह उसके रूप पर मुग्ध हो गया। राजा के हृदय में कामराग का ऐसा संचार हुआ कि वह नीति और मर्यादा को भी भूल बैठा। उसने निश्चय कर लिया कि वह भुवनसुंदरी को पाने के लिए कुछ भी करेगा। दूसरे दिन सीमान्त पर शत्रु के द्वन्द्व का कल्पित नाटक रचकर उसने अनुज प्रतापसेन को शत्रु का दमन करने के लिए भेज दिया। रात्रि में वह भुवनसुंदरी के महल के द्वार पर पहुंचा और भ्रातृ-पत्नी से उसने परिणय - प्रार्थना की। ज्येष्ठ के मुख से ऐसा अकल्पित प्रस्ताव सुनकर भुवनसुंदरी सहम गई। उसने द्वार खोले बिना ही संयत और मर्यादित शब्दों में ज्येष्ठ को समझाने का प्रयत्न किया। पर प्रद्युम्न पर तो काम का पिशाच चढ़ा हुआ था ! उसने विविध प्रलोभन देकर भुवनसुंदरी को द्वार खोलने को कहा । भुवनसुंदरी को विश्वास हो गया कि राजा मर्यादा और धर्म को भूल चुका है, वह संयत शब्दों से बाज नहीं आएगा, अतः उसने कठोर वचनों से राजा की भर्त्सना की और कटार निकालकर उसे चेतावनी दी कि वह इसी क्षण अपने महल में नहीं लौटेगा तो वह या तो उसका वध कर देगी अथवा आत्महत्या कर लेगी। भुवनसुंदरी के चण्डीरूप को देखकर राजा कांप उठा और क्रोध में बड़बड़ाता हुआ अपने स्थान पर लौट गया ।
राजा प्रद्युम्न का हृदय प्रतिशोध की ज्वालाओं में सुलग रहा था। उसने एक कुटिल षड्यन्त्र की परिकल्पना की। उसने एक कल्पित पत्र भुवनसुंदरी के पास भिजवाया। पत्र में अंकित था कि भुवनसुंदरी की मां अस्वस्थ है और वह पुत्री से मिलना चाहती है। भुवनसुंदरी अस्वस्थ मां से मिलने को उतावली हो गई । संरचित षड्यंत्र सफल रहा। सेवक भुवनसुंदरी को रथ में बैठाकर उसके पीहर के लिए चल पड़ा। घोर घने जंगल में जाकर सेवक ने भुवनसुंदरी को राजा के षड्यंत्र के बारे में बता दिया कि राजा का आदेश उसे जंगल में एकाकी छोड़ देने का है। सेवक लौट गया । भुवनसुंदरी वन में भटकने लगी । न उसे मार्ग का पता था और न दिशाओं का भान था । वह वन दर वन भटकती रही।
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कुछ दिनों के बाद भुवनसुंदरी को वन में मदनपुरी का एक व्यापारी श्रेष्ठी मिला । भुवनसुंदरी के रूप को देखकर वह मोहित बन गया। पर उसने युक्ति का आश्रय लिया और भुवनसुंदरी का परिचय पूछा। भुवनसुंदरी ने अपना इतना ही परिचय दिया कि वह अपने परिजनों के साथ देशान्तर जा रही थी और दुर्दैववश परिजनों से बिछुड़ गई। सेठ ने भुवनसुंदरी को 'बहिन' शब्द से सम्बोधित किया और उसे विश्वास दिया कि वह उसे उसके पीहर इन्द्रपुरी पहुंचा देगा । विश्वस्त होकर भुवनसुंदरी सेठ के साथ चली गई। सेठ उसे जैन चरित्र कोश •••
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