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भावों से महान कर्मों की निर्जरा की और उत्कृष्ट पुण्य का अर्जन किया।
एक बार मृग ने एक सुधार को देखा, जो रथनिर्माण में काम आने वाली लकड़ी लेने वन में आया था । सुथार ने वृक्ष की एक शाखा को काटना शुरू किया । आधी शाखा कटने तक दोपहर हो गई। आधी कटी शाखा को मध्य में ही छोड़कर वह वृक्ष से नीचे उतरा और भोजन करने की तैयारी करने लगा। मृग ने उपयुक्त अवसर देखा और वह मुनिवर बलभद्र को भिक्षा के लिए वहां ले आया । सुथार ने तपस्वी मुनि को देखा। उसने अपने को धन्य माना और मुनिवर से भिक्षा की प्रार्थना की। मुनि श्री बलभद्र जी ने अपना पात्र सुथार के समक्ष फैला दिया । उत्कृष्ट भावना से सुथार आहार बहराने लगा । सुथार की उत्कृष्ट दान भावना और मुनिवर की तप साधना पर पास खड़ा मृग गद्गद हो रहा था। उसी समय हवा का एक तेज झोंका आया और अध-कटी शाखा टूट कर गिर पड़ी। मुनिवर बलभद्र जी, सुथार और मृग, इन तीनों का एक साथ प्राणान्त हो गया। उत्कृष्ट भावना भाते हुए मृत्यु धर्म को प्राप्त हुए वे तीनों जीव पांचवें देवलोक के पद्मोत्तर विमान में देव बने ।
इस प्रकार मुनिवर बलभद्र जी इस भूतल से विदा हुए। उत्कृष्ट तपाराधना के फलस्वरूप उन्होंने तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया था । आगामी चौबीसी में वे निष्पुलाक नामक चौदहवें तीर्थंकर होंगे। - आवश्यक चूर्णि / त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, पर्व 22 / हरिवंश पुराण, 73 / पाण्डव पुराण
(घ) बलभद्र राजा
राजगृह नगर का एक मौर्यवंशी राजा, जो अनन्य श्रमणोपासक था । (देखिए - आषाढ़ाचार्य के शिष्य)
बलवीर कुमार
वसन्तपुर नरेश वज्रसेन का पुत्र, एक विनीत, साहसी और बुद्धिमान राजकुमार । उसकी जननी का नाम प्रियंवदा था और वह राजा की छोटी रानी थी। राजा की बड़ी रानी का नाम सुग्रीवा था । उसी पर राजा का अनुराग था। उसके दो पुत्र थे, धनवीर और जयवीर । ये दोनों भी दंभी और भीरु थे। पर राजा को ये दोनों ही प्रिय थे। छोटे पुत्र पर राजा का प्रेमभाव नहीं था । यथासमय तीनों राजकुमारों ने शिक्षा पूर्ण की। अपने विनम्र स्वभाव के कारण बलवीर शिक्षा और शौर्य में अपने दोनों बड़े भाइयों से आगे रहा । प्रजा भी उसी से प्यार करती थी, परन्तु सुग्रीवा के मोहपाश में आबद्ध होने से राजा उसी के पुत्रों को अधिक चाहता था। धनवीर को ही युवराज पद भी दिया गया ।
एक बार राजा ने स्वप्न में एक दिव्य वृक्ष देखा । वह वृक्ष उसे इतना सुन्दर प्रतीत हुआ कि वह उसे पुनः देखने के लिए व्याकुल हो गया। राजा ने स्वर्णथाल में पान का बीड़ा रखा और घोषणा की कि बीड़े को वह व्यक्ति ग्रहण करे, जो राजा को दिव्य वृक्ष दिखा सके। विचित्र शर्त थी । अतः कोई भी बीड़ा उठाने को तैयार नहीं हुआ। आखिर धनवीर ने बीड़े को उठाया और अपने पिता को आश्वासन दिया कि एक वर्ष की अवधि में वह उन्हें दिव्य वृक्ष के दर्शन करा देगा |
दिव्य वृक्ष के रहस्य को खोजने के लिए धनवीर अपने सहोदर जयवीर के साथ चल दिया। वन में एक वृद्धा ने उनसे सहयोग मांगा। राजकुमार होने के दंभी युवकों ने वृद्धा का अनादर किया और आगे बढ़ गए। कुछ दिनों की यात्रा के पश्चात् वे एक ठगपल्ली में पहुंचे और ठगों ने उनके घोड़े और समस्त धन लूट लिया । लुटे-पिटे आगे बढ़े तो हंसावली नामक एक युवती से शर्त में हार जाने पर उन दोनों को उसकी गोशाला का नौकर बनना पड़ा।
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