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नाराज हो गए हैं। उनकी दशा विक्षिप्त जैसी हो गई। भाई के शव को कन्धे पर उठाकर वे वनों में भटकने लगे। कहते हैं कि छह महीने तक वे श्री कृष्ण के शव को कन्धे पर लिये घूमते रहे।
पूर्वजन्म के एक मित्र देव ने बलभद्र जी की इस विक्षिप्त दशा को देखा तो वह उन्हें प्रतिबोध देने के लिए वहां आया। उसने एक माली का रूप बनाया और मार्ग के किनारे ही एक पत्थर की शिला पर कमल का पौधा लगाने लगा। कृष्ण-शव को कन्धे पर रखे बलभद्र जी उधर से गुजरे। माली के उस अज्ञान-प्रयास को देखकर वे बोले, मूर्ख माली ! पत्थरों पर भी कभी कमल खिला करते हैं?
मालीरूपी देव ने कहा, यदि मृत्यु को प्राप्त हो चुके श्री कृष्ण जीवित हो सकते हैं तो पत्थर पर कमल भी खिल सकते हैं। ___बलभद्र जी रोषारुण बनकर बोले, दुष्ट माली! अपनी जबान को संभाल! भला कृष्ण कभी मर सकते
बलभद्र जी आगे बढ़ गए। देव ने एक अन्य उपक्रम से बलभद्र जी को प्रतिबोध देना चाहा। एक ग्वाले का रूप धारण कर वह मृतगाय को घास खिलाने की चेष्टा करने लगा। बलभद्र जी वहां पहुंचे और ग्वाले की नादानी देखकर बोले-नादान गोपाल! मृत गाय भला घास कैसे खा सकती है ? ग्वाल-रूपी देव ने कहा, आपके कन्धे पर मृत आपके भाई जीवित हो सकते हैं तो मृत गाय घास क्यों नहीं खा सकती है?
देव ने ऐसे कई उपक्रम किए, जिससे बलभद्र जी का भ्रम दूर हो गया। उन्हें निश्चय हो गया कि उनके भाई श्री कृष्ण का देहावसान हो चुका है। भाई के शव को सामने रखकर बलभद्र जी विलाप करने लगे। उस समय देव प्रकट हुआ और उसने बलभद्र जी को सान्त्वना व प्रतिबोध दिया। बलभद्र जी का शोक कम हो गया। उन्होंने समुद्र-सिन्धु संगम स्थल पर श्रीकृष्ण के शव का अग्नि संस्कार किया। उसके बाद वे अरिहन्त अरिष्टनेमि के ध्यान में लीन होकर संयम भावों से भावित बनने लगे। भगवान अरिष्टनेमि ने एक चारण लब्धि सम्पन्न मुनि को बलभद्र जी के पास भेजा। मुनि ने बलभद्र जी को उपदेश दिया। बलभद्र जी ने मुनिदीक्षा धारण की और आत्मसाधना में संलग्न हो गए। वे मास-मास का उपवास करते और पारणे के लिए नगर में पधारते।
बलभद्र मुनि विशिष्ट पुरुष रत्न थे। उनका दैहिक-सौंदर्य अद्भुत था। एक बार जब वे पारणे के लिए नगर में भ्रमण कर रहे थे तो कुछ महिलाएं कुएं पर पानी भर रही थीं। एक महिला की दृष्टि बलभद्र मुनि पर पड़ी और वह उनके तेजस्वी रूप पर मुग्ध हो गई। रूपमुग्धा उस महिला का विवेक लुप्त हो गया और उसने घड़े के स्थान पर अपने पुत्र के गले में रस्सी डाल दी। बच्चा चिल्लाया तो मुनिवर का ध्यान उस ओर गया। मुनिवर को वस्तुस्थिति समझते देर नहीं लगी। उस संभावित अनर्थ का कारण मुनिवर ने अपने रूप को माना। उसी क्षण उन्होंने निश्चय कर लिया कि वे भिक्षा के लिए नगर में नहीं जाएंगे, यदि वन में ही एषणीय आहार उपलब्ध हुआ तो वे पारणा करेंगे, अन्यथा तप में ही लीन रहेंगे।
ऐसा निश्चय कर मुनिवर बलभद्र जी जंगल में रहकर ही तप करने लगे। यदा-कदा पथिकों से शुद्ध भिक्षा मिलती तो वे पारणा कर लेते। उसी अवधि में एक मृग मुनिवर का भक्त बन गया। मुनिवर के सान्निध्य से उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। मृग ने अपने ज्ञान से जान लिया कि मुनिवर ने भिक्षा के लिए गांव में नहीं जाने का संकल्प ले रखा है। मृग वन में घूमकर मुनिवर के पारणे की संभावनाएं तलाश करता और शुद्ध आहार की संभावनाएं तलाश कर मुनिवर को गोचरी कराता। ऐसे उस मृग ने शुद्ध और उत्कृष्ट ...जैन चरित्र कोश ..
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