________________
(ग) धनसागर
(देखिए-भविष्यदत्त) (क) धनसार
___ मथुरा नगरी का रहने वाला एक धनवान श्रेष्ठी। उसके कोष में बासठ करोड़ स्वर्ण मुद्राएं थीं। पर वह जितना धनी था, उतना ही कृपण भी था। लोग उसे कृपण सेठ के नाम से पुकारते थे। लक्ष्मी का वह ऐसा अन्ध-चाकर था कि उसका वह न स्वयं उपभोग करता था और न ही दान-पुण्य में उसका उपयोग कर पाता था। ___ एक बार सहसा धनसार का भाग्य पलटा और वह आकाश से रसातल में जा पहुंचा। उसके जहाज समुद्र में डूब गए, उसके सार्थ को लुटेरों ने लूट लिया, गोदाम अग्नि की भेंट चढ़ गए और कोष में रखा धन कोयलों में बदल गया। धनसार को उदरपोषण भी दुष्कर हो गया। आखिर मित्रों और पारिवारिकों से कर्ज लेकर उसने व्यापार के लिए समुद्र यात्रा की। पर भाग्य साथ न हो तो मनुष्य के सभी प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। समुद्र में जहाज टूट गया और धनसार का सारा माल समुद्र के गर्भ में समा गया। धनसार एक लकड़ी के तख्ते के सहारे किनारे आ लगा। अपने भाग्य पर आंसू बहाता हुआ दिग्भ्रान्त होकर यत्र-तत्र भटकने लगा। ___एक दिन सागर तट से कुछ दूरी पर स्थित एक उद्यान में धनसार पहुंचा। वहां एक केवली मुनि का समवसरण लगा था। धनसार ने मुनि की प्रदक्षिणा की और प्रवचन सुना। उसका हृदय कुछ शान्त हुआ। प्रवचनोपरान्त उसने मुनि से अपने जीवन के उतार-चढ़ाव के बारे में पूछा। मुनि ने उसे स्वकृत-कर्म का परिणाम बताया। धनसार की प्रार्थना पर मुनि ने उसका पूर्वभव सुनाया, जो इस प्रकार था
धातकीखण्ड द्वीप की अम्बिका नामक नगरी में दो भाई रहते थे। बड़ा भाई दानपुण्य में अपने धन का उपयोग करता और सदाचारपूर्वक जीवन जीता था। उसका यश पूरे नगर में फैला था। छोटे भाई का स्वभाव बड़े भाई के स्वभाव से सर्वथा विपरीत था। वह ईर्ष्यालु और कृपण था। अपने बड़े भाई के यश को वह सहन नहीं कर सका और उसने राजा के कान भर दिए। राजा ने भी बिना कुछ सोचे बड़े भाई के सारे धन का अपहरण कर लिया। छोटे भाई के इस कृत्य पर रोष किए बिना ही बड़े भाई ने मुनिदीक्षा धारण कर ली और विशुद्ध संयम की आराधना कर वह प्रथम देवलोक में देव बना। बाद में छोटे भाई को नागरिकों का कोपभाजन बनना पड़ा। वह भी तापस धर्म में दीक्षित हो गया और अज्ञान तप कर असुर कुमार देव बना। असुर कुमार देव च्यवकर मथुरा में तुम्हारे रूप में उत्पन्न हुआ।
केवली मुनि ने कहा, धनसार! तुम्हारी कृपणता और ईर्ष्या का फल तुम्हें इस जन्म में प्राप्त हुआ है। तुमने भाई का धन हरण कराया, उसी के फलस्वरूप तुम्हारा धन नष्ट हुआ है।
धनसार ने पूछा, भगवन् ! मेरे अग्रज के विषय में भी आगे बताने की कृपा करें। मुनि ने फरमाया, तुम्हारा अग्रज प्रथम देवलोक से च्यवकर ताम्रलिप्ति नगरी के एक श्रेष्ठी कुल में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। कुछ काल तक सुख-सम्पत्ति का उपभोग कर वह श्रेष्ठीपुत्र सांसारिक मोह से उपरत हुआ और प्रव्रजित हो गया। उत्कृष्ट चारित्र की आराधना से उसने केवलज्ञान प्राप्त किया। हे धनसार! मैं ही पूर्वभव का तुम्हारा अग्रज हूँ। ____धनसार मुनि के वचन सुनकर और कर्मगति की विचित्रता सुनकर चकित रह गया। उसके भाव विशुद्धतर बन गए। उसने मुनि से श्रावकधर्म अंगीकार किया और प्राणपण से उसका पालन भी किया। ...278 ..
.. जैन चरित्र कोश...