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में राजकुमारी उसे पहचान न सकी और दोनों ने देव-प्रतिमा के समक्ष शपथपूर्वक विवाह कर लिया। उसके बाद वे अलग-अलग अश्वों पर आरूढ़ होकर तीव्र गति से श्रीपुर की सीमा से दूर निकल गए। प्रभात का उजाला खिलने लगा तो राजकुमारी सुहागसुंदरी मंत्रीपुत्र के स्थान पर विनयचंद्र को देखकर सहम गई। वह विनयसुंदर की वज्रमूर्खता का सर्वाधिक उपहास किया करती थी और मन ही मन उससे घृणा किया करती थी। परन्तु भाग्य ने उसे ऐसा छला कि वह न आगे बढ़ सकती थी और न पीछे लौट सकती थी। आखिर वे आहड़पुर नामक नगर में पहुंचे। वहां एक सप्तमंजिला भवन खरीदा गया। राजकुमारी सबसे ऊपरी मंजिल में तथा विनयचंद्र सबसे नीचे की मंजिल में रहने लगा। राजकुमारी अब भी विनयचंद्र को वज्रमूर्ख मानती थी और उसका मुख तक नहीं देखना चाहती थी। ___ आहड़ नगर में विनयचंद्र ने पर्याप्त सुयश अर्जित किया। एक बार राजा एक महल का निर्माण करवा रहा था। नींव से एक ताम्रपत्र निकला। परन्तु उस पर अंकित शब्द किसी प्राचीन भाषा के थे और पूरे राज्य में कोई भी विद्वान उस भाषा को पढ़ नहीं सका। आखिर विनयचंद्र ने उस ताम्रपत्र को पढ़ा और बताया कि ताम्रपत्र के लेख के अनुसार नींव से सात हाथ की दूरी पर सोलह करोड़ मोहरें दबी हुई हैं। निर्देशित स्थान की खुदाई की गई तो सोलह करोड़ स्वर्णमुद्राएं वहां से प्राप्त हुईं। इस बात से राजा इतना हर्षित हुआ कि उसने विनयचंद्र को एक नवीन नाम प्रदान किया-विद्याविलास। साथ ही उसने उसे मंत्री-पद भी प्रदान किया। शनैः-शनैः विद्याविलास ने अपनी विद्या द्वारा राज्य की समृद्धि के लिए अनेक कार्य किए। राजा ने अपनी पुत्री सुरसुंदरी का विवाह विद्याविलास से कर दिया और राजसिंहासन भी उसे प्रदान कर स्वयं प्रव्रजित हो गया। शनैः-शनैः सुहागसुंदरी भी विद्याविलास की विद्वत्ता से परिचित हो गई और उसे अपनी पूर्वधारणा
और पूर्व व्यवहार पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। एक अन्य कुमारी से भी विद्याविलास का पाणिग्रहण हुआ। बाद में विद्याविलास विश्वस्त अनुचरों को आहड़पुर के राज्य का दायित्व देकर अपनी तीन पत्नियों के साथ श्रीपुर आया। श्रीपुर नरेश अपनी पुत्री और जामाता राजा से मिलकर गद्गद हो गया। उसके भी कोई पुत्र न था। फलतः उसने श्रीपुर का राजपाट विद्याविलास को प्रदान कर दिया और स्वयं मुनि बनकर साधना करने लगा।
श्रीपुर के राज्य को भी सुयोग्य मंत्रियों के व्यवस्थापन में रख कर विद्याविलास चतुरंगिणी सेना सजा कर उज्जयिनी पहुंचा। अपनी सीमा पर विशाल चतुरंगिणी सेना को देखकर उज्जयिनी नरेश का मन वैराग्य से पूर्ण बन गया। तश्तरी में राजमुकुट रखकर वह विद्याविलास के पास पहुंचा और अपना साम्राज्य उसे सौंपकर प्रव्रजित हो गया। उज्जयिनी के सिंहासन पर बैठकर विद्याविलास (धनसागर) का बहुत पुराना स्वप्न साकार हुआ। उसने कुछ ही दिनों में प्रशासन तंत्र को चुस्त-दुरुस्त और पारदर्शी बनाकर रामराज्य की स्थापना कर दी। फिर एक दिन विद्याविलास ने अपने माता-पिता और भाइयों को राजदरबार में बुलाकर संक्षिप्त कौतूहल सृजित कर अपना परिचय दिया। पुत्र धनसागर को तीन-तीन साम्राज्यों का स्वामी देखकर माता-पिता निःशब्द आनंद में निमग्न हो गए। अग्रजों ने अनुज को गले से लगा लिया।
. सुदीर्घ काल तक विद्याविलास ने सुशासन किया। उसके राज्य में निर्ग्रन्थ मुनियों का निरंतर विचरण होता था। उसने भी निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा की और श्रावक व्रत अंगीकार किए। अंतिम समय में समाधिमरण प्राप्त कर वह बारहवें देवलोक का अधिकारी बना।
-मलयहंस (देवदत्तगणि) (ख) धनसागर
कौशाम्बी पुर नगर का एक धूर्त व्यापारी। (देखिए-सहस्रमल्ल) ... जैन चरित्र कोश ...
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