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अपठित और महत्वाकांक्षी युवक। सेठ के प्रथम तीनों बेटे भी बहुत पढ़े-लिखे और विचक्षण नहीं थे, परन्तु धनसार तो पूर्णरूप से विद्याहीन था। उसने न कभी विद्यालय का द्वार देखा था और न ही अध्यापक का मुख। सेठ अपने विद्याहीन पुत्रों को देखकर मन ही मन दुखी होता रहता था। एक दिन उसने यह निर्णय कर लिया कि वह अपनी संपत्ति को अपने पुत्रों की रुचि के अनुसार व्यवसाय में व्यय करके गृह दायित्व से मुक्त हो जाए। उसने बड़े पुत्र की इच्छानुसार उसकी दुकान करा दी। दूसरे पुत्र की इच्छानुरूप उसे कृषि योग्य भूमि प्रदान कर दी । तृतीय पुत्र ने विदेश में रहकर नौकरी करनी चाही, तो उसके लिए विदेश में नौकरी की व्यवस्था कर दी। सबसे छोटे पुत्र धनसागर से पिता ने उसकी इच्छा पूछी तो धनसागर ने कहा, पिता जी ! मैं तो यही चाहता हूँ कि उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठूं ! यदि आप उज्जयिनी के राजसिंहासन का प्रबन्ध मेरे लिए कर सकें तो आपकी महती कृपा होगी ।
• धनसागर की आकाश-कुसुम के समान आकांक्षा को सुनकर पिता को बहुत क्रोध आया। उसने धनसागर 'को अपमानित और तिरस्कृत कर अपने घर से निकाल दिया । धनसागर मन्दबुद्धि तो था ही, सो पिता की डांट पर बिफर पड़ा और बोला, अब मैं घर तभी लौटूंगा, जब उज्जयिनी का राज्य प्राप्त कर लूंगा। घर से निकलकर वह दूर - देशों में भटकने लगा। किसी ने उसे बताया कि विद्यावान के लिए विश्व में कुछ भी दुर्लभ नहीं है। इस सोच को पल्ले बांधकर धनसागर किसी आचार्य की तलाश में जुट गया, जो उसे विद्या दान दे सके। भटकते-भटकते वह श्रीपुर नगर के तपोवन में पहुंचा, जहां उसने एक आचार्य को विद्यार्थियों को पढ़ाते देखा । धनसागर ने आचार्य से प्रार्थना की कि वे उसे विद्यादान दें। आचार्य ने उसके विनीत प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और उसकी पात्रता को देखकर उसे वर्णमाला का प्रथम अक्षर लिखकर दिया और कहा, यह तुम्हारा पहला सबक है। धनसागर पूरे मानस से उस सबक को सीखने में जुट गया। अहर्निश उस सबक को रटता, पर ज्ञानावरणीय कर्म के प्रबलतम उदय भाव के कारण वह उस एक अक्षर को भी स्मरण नहीं कर पाया। एक मास तक आचार्य उसे प्रथम अक्षर सिखाते रहे पर उसे वह अक्षर सिखा नहीं पाए । रुष्ट होकर आचार्य ने उसे वज्रमूर्ख कहकर गुरुकुल से बहिष्कृत कर दिया।
इससे धनसागर बहुत दुखी हुआ । उसने तपोवन के निकट ही स्थित सरस्वती के मंदिर में रहकर सरस्वती की आराधना प्रारंभ कर दी। उसकी आराधना की निष्ठा की पराकाष्ठा देखकर सरस्वती ने उस पर प्रसन्न होकर उसे चतुर्दश विद्याओं का पारगामी विद्वान होने का वरदान दे दिया । धनसागर की विनीतता और भक्ति पर आचार्य मुग्ध थे इसलिए उसे विनयचन्द नाम प्रदान किया था । विनयचन्द चौदह कलाओं का निधान बन चुका था। परन्तु गुरुकुल में इस भेद को कोई जान नहीं पाया था । गुरुकुल के छात्र और छात्राएं विनयचन्द को वज्रमूर्ख कहकर ही उसका उपहास करते थे ।
उसी गुरुकुल में राजकुमारी सुहागसुंदरी और मंत्रीपुत्र लच्छीनिवास भी अध्ययन करते थे । राजकुमा मंत्रीपुत्र से विवाह करना चाहती थी, पर राजभय से मंत्रीपुत्र को राजकुमारी का वैवाहिक प्रस्ताव स्वीकार नहीं था। आखिर एक दिन राजकुमारी ने मंत्रीपुत्र को इसके लिए विवश कर दिया और अपनी गुप्त योजना समझाते हुए उससे कहा, कल अमावस्या की रात है, तुम रात्रि में फलां मंदिर में पहुंच जाना। मैं प्रभूत धन और अश्व लेकर वहां आऊंगी और प्रभात होने से पूर्व ही हम श्रीपुर राज्य से पार हो जाएंगे। राजकुमारी के अतिशय दबाव से मंत्रीपुत्र ने मंदिर में मिलने का वचन दे दिया । संध्या घिरने लगी। मंत्रीपुत्र ने राजकुमारी को वचन तो दे दिया पर वह वैसा करने का साहस न जुटा सका। उसने विनयचंद को सब बात बताई और कहा कि यदि वह मंदिर में जाएगा तो उसे राजकुमारी से विवाह करने का सौभाग्य प्राप्त होगा । विनयचंद मंत्री का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। रात्रि में वह मंदिर में पहुंच गया। अमावस्या के घोर अंधेरे • जैन चरित्र कोश •••
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