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भाइयों-धनपति और धनावह के साथ रहती थी। दोनों भाई और भाभियां उसका विशेष आदर-मान करते
एक बार धनश्री ने माया के आचरण से भाइयों के हृदय में स्वयं के प्रति विश्वास को बढ़ाने का उपक्रम किया। उसमें वह सफल हुई। भाइयों का प्रेम उस पर पूर्वापेक्षया सघन हो गया।
जीवन के उत्तरार्ध पक्ष में धनश्री ने अपने दोनों भाइयों और दोनों भाभियों के साथ संयम धारण किया। आयष्य पर्ण कर पांचों देवलोक में देव बने। देव भव से च्यव कर धनश्री गजपुर निवासी शंख नामक श्रावक की पुत्री बनी, जहां उसका नाम सर्वांगसुंदरी रखा गया। धनपति और धनावह के जीव साकेतपुर नगर के सेठ अशोकदत्त के पुत्रों के रूप में जन्मे, जहां उनके नाम समुद्रदत्त और वरदत्त रखे गए। उनकी पत्नियों के जीव कौशलपुर नगर के सेठ की पुत्रियों के रूप में जन्मे, जहां उनके नाम श्रीमती और कांतिमयी रखे गए। सर्वांगसुंदरी युवा हुई तो उसका विवाह समुद्रदत्त के साथ किया गया। पर पूर्वजन्म के मायाचार का प्रतिफल सर्वांगसुंदरी को इस रूप में मिला कि समुद्रदत्त विवाह की प्रथम रात्रि में ही उसके चरित्र के प्रति सशंकित हो गया और उसने उसका परित्याग कर दिया। कुछ समय बाद समुद्रदत्त और वरदत्त के विवाह श्रीमती और कांतिमती से हो गए।
सर्वांगसुंदरी निर्दोष होते हुए भी दोषी ठहराई गई। इससे उसका हृदय वैराग्य से पूर्ण हो गया। संसार का परित्याग कर वह साध्वी बन गई और निरतिचार संयम की आराधना में तल्लीन हो गई। एक बार वह अपनी गुरुणी के साथ विचरण करती हुई साकेत नगर में पहुंची। संयोग से भिक्षा के लिए श्रीमती के घर पहुंच गई। उस समय श्रीमती कक्ष में बैठी हुई हार पिरो रही थी। साध्वी जी को देखते ही वह श्रद्धावश हार को वहीं छोड़कर उठ खड़ी हुई और भिक्षा लेने के लिए घर के भीतर चली गई। उसी क्षण एक आश्चर्यजनक घटना घटी। दीवार पर सजावट के लिए रखा हुआ एक मोर दीवार से नीचे उतरा और उस हार को निगल कर पुनः यथास्थान जा बैठा। इस दृश्य को देखकर साध्वी सर्वांगसुंदरी हैरान हो गई। वह आहार लेकर उपाश्रय में आ गई। उसने अपनी गुरुणी को पूरी घटना कही। गुरुणी ने सर्वांगसुंदरी साध्वी को बताया कि उसका कोई पूर्वजन्म का पापकर्म उदित हुआ है। अतः वह समभावपूर्वक आहार का परित्याग कर तपाराधना करे। सर्वांगसुन्दरी तप की आराधना में तल्लीन बन गई।
उधर हार खो जाने की बात फैल गई। सभी लोगों ने साध्वी को ही संदेहपूर्ण दृष्टि से देखा। पूरे नगर में साध्वी सर्वांगसुंदरी का अवर्णवाद होने लगा। परन्तु साध्वी जी मौन और समता रस में डूब कर तप में तल्लीन थी। तप ने साध्वी के पूर्वबद्ध कर्मों को जराजीर्ण बना दिया।
श्रीमती और उसका पति कक्ष में बैठे हार के खो जाने पर चिन्तन कर रहे थे। तभी धातु-निर्मित मोर ने वह हार उगल दिया। पति-पत्नी चकित रह गए। वे साध्वी जी पर किए गए दोषारोपण पर घोर पश्चात्ताप करने लगे। दोनों भाई और उनकी दोनों पत्नियां साध्वी जी से क्षमा मांगने के लिए उपाश्रय की ओर चल दिए। तभी देव दुंदुभियां बज उठीं। उनको ज्ञात हुआ कि साध्वी सर्वांगसुंदरी को कैवल्य की प्राप्ति हो गई है। उनका हृदय वैराग्य से भीग गया। दीक्षा धारण कर वे चारों भी साधना-पथ पर बढ़ चले।
-जैन कथा रत्न कोष, भाग-6 धनसंचय सेठ
कौशाम्बी के कोटीश्वर श्रेष्ठी। अनाथी मुनि के पिता। (देखिए-अनाथी मुनि) (क) धनसागर
उज्जयिनी नगरी के रहने वाले एक कोटीश्वर श्रेष्ठी धनपति के चार पुत्रों में सबसे छोटा पुत्र, एक ... जैन चरित्र कोश ...
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