________________
कालान्तर में धनसार अपने धर्म पर इतना सुदृढ़ हुआ कि देवता भी उसे विचलित नहीं कर पाए। उसे उसकी खोई हुई समृद्धि भी प्राप्त हो गई । विशुद्ध श्रावकधर्म का आराधन कर वह देवलोक में गया और अनुक्रम से सिद्धि प्राप्त करेगा ।
(ख) धनसार
प्रतिष्ठानपुर नगरवासी एक सेठ । (देखिए - धन्य जी) (क) धनसेठ
1
कंचनपुर नगर का एक समृद्ध श्रेष्ठी, जिसके पास निन्यानवे लाख स्वर्णमुद्राओं की सम्पत्ति थी । जीवन के पूर्वार्द्ध पक्ष में धनसेठ इसी प्रयास में लगा रहा कि उसके पास सौ लाख स्वर्णमुद्राएं हो जाएं, और वह कोटीश्वर सेठ बन जाए। उसके लिए उसने अनेक उपक्रम किए। व्यापार को फैलाया, विदेश यात्राएं कीं, तांत्रिकों -मांत्रिकों की शरण ली, धूर्तकलाओं का आश्रय लिया, जो भी वह कर सकता था, उसने किया, पर वह कोटीश्वर नहीं बन सका । कोटीश्वर बनने की धुन उसके मस्तिष्क पर इस कदर हावी थी कि वह एक बार एक धूर्त तांत्रिक के जाल में फंस गया। तांत्रिक धन सेठ को अगम्य पर्वत गुफा में ले गया। वहां सिद्धरस का कूप था। योगी ने धन सेठ को रस्सी के सहारे कूप में उतार दिया। सेठ रस की कुप्पी भर लाया। तांत्रिक ने रस कुप्पी तो ले ली पर सेठ को उसी कूप में धकेल दिया। धन सेठ मृत्यु के कगार पर पहुंच गया। पुण्य योग से वह कूप से निकला और पर्वत गुफा से बाहर आया। वहां चोरों ने उसे बन्दी बना लिया। बाद में उसे रक्त व्यापारियों के हाथों बेच दिया। रक्त व्यापारी छह मास तक धन सेठ को अच्छे-अच्छे पदार्थ खिलाते और जब वह बलिष्ठ और स्थूलकाय बन जाता तो उसकी नस काटकर उसका रक्त निचोड़ लेते। कई वर्षों तक धन सेठ इस दारुण वेदना को भोगता रहा। एक बार ज्यादा रक्त निकाल लिए जाने के कारण धन सेठ अचेत हो गया। रक्त-व्यापारियों ने उसको खुले आसमान के नीचे धूप में डाल दिया। एक भारण्ड पक्षी धनसेठ को अपने पंजों में दबा कर उड़ चला। एक अन्य भारण्ड पक्षी मांस के लोभ में उस भारण्ड से भिड़ गया। दोनों पक्षी लड़ रहे थे। पंजों की पकड़ ढीली हो जाने से धन सेठ नीचे गिर पड़ा। वह घास के पूलों पर गिरा, जिससे उसके प्राण बच गए। वहां से किसी तरह वह अपने घर पहुंच गया। अपनी स्थिति पर उसे घोर आत्मग्लानि हो रही थी । उन्हीं दिनों में उसे एक मुनि के दर्शन हुए। मुनि का उपदेश सुनकर धनसेठ के विचारों में परिवर्तन आ गया। उसने कोटीश्वर बनने की लालसा का परित्याग कर दिया । उसने श्रावक के बारह व्रत अंगीकार किए और विशेष रूप से इच्छा परिमाण व्रत धारण किया ।
श्रावक धर्म अंगीकार कर लेने के पश्चात् धनसेठ के जीवन में पूरी तरह रूपान्तरण हो गया। कोटीश्वर बनने के लिए उसके हृदय में जितनी उमंग थी, उतनी ही उमंग व्रत पालन में हो गई। धर्म के फलस्वरूप उसके धन में आशातीत वृद्धि होने लगी । परन्तु मर्यादा से अतिरिक्त धन को वह जरूरतमंदों में बांट देता । उसने कई दान-शालाएं खुलवाईं, उपाश्रय बनवाए और पंथागारों का निर्माण कराया। उसकी दृढधर्मिता से चारों दिशाओं में उसका सुयश वर्धमान हो गया ।
एक बार देश में द्वादशवर्षीय दुष्काल पड़ा। लोग अन्न के कण-कण के लिए तरस गए। उस समय शासन रक्षक देवों ने धनसेठ के कोठारों को अक्षय धन-धान्य से भर दिया। धनसेठ ने कल्पवृक्ष बनकर प्रजा का पालन किया। राजा ने धन सेठ को कोषाध्यक्ष बनाना चाहा। पर धनसेठ ने राजा के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इस पर राजा नाराज हो गया। उसने सेठ को दण्ड का भय दिखाया । धनसेठ नियम भंग के ••• जैन चरित्र कोश
*** 279