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खरीद ली। खरीद ही नहीं ली बल्कि गाथा के सच को अपने जीवन का सच भी बना लिया। पर इसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि रत्नसार पुत्र के अपव्यय पर नाराज हो गया और उसे घर से निकाल दिया। धनद इसे विधि का खेल मानकर घर से चल दिया। जंगल में जाकर एक वृक्ष के नीचे लेट गया। वहां उसे एक शिकारी का बाण लगा। अत्यधिक रक्तस्राव से धनद मूर्छित हो गया। एक भारण्ड पक्षी धनद को मृत जानकर अपनी चोंच में दबाकर किसी अज्ञात द्वीप पर ले गया। वहां द्वीप के विशुद्ध वायुमण्डल से धनद की चेतना लौट आई। धनद को स्पंदित देखकर भारण्ड पक्षी उसे एक स्थान पर रखकर अन्यत्र उड़ गया ।
धनद ने वहां एक कुएं से जल पीकर प्यास बुझाई और वृक्षों से फल तोड़कर क्षुधा शान्त की। वह एक दिशा में गया तो उसने एक निर्जन नगर देखा। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि सुन्दर आवास निर्जन हैं, भरे-पूरे बाजार हैं पर वहां कोई मनुष्य नहीं है। धनद ने उसे देव-प्रकोप माना। उसे वहां ठहरना निरापद नहीं लगा। वह जंगल में चला गया। शीत निवारण के लिए उसने अग्नि जलाई और रात्रि व्यतीत की। सुबह सूर्योदय होने पर उसने देखा कि जिस स्थान पर अग्नि जलाई गई थी, वहां की पृथ्वी स्वर्णमयी हो गई है। धनद समझ गया कि वह स्वर्णद्वीप पर है, जहां की मिट्टी अग्नि का संयोग पाते ही सोना हो जाती है। उसने अग्नि के उपयोग से पर्याप्त स्वर्ण निर्मित किया और सोने की इंटें बनाकर उन पर अपना नाम अंकित कर दिया। किसी दिन जंगल में घूमते हुए उसे रत्न-राशि का विशाल ढेर मिला। यथेच्छ रत्न लेकर वह कुएं के निकट आ गया।
सुदत्त नामक एक सार्थवाह का जहाज पानी लेने के लिए स्वर्ण द्वीप पर लगा। धनद को लगा कि अब उसे जीवन का कोई न कोई द्वार मिलेगा। सुदत्त और धनद में प्रेमालाप हुआ। धनद ने कहा कि वह यदि उसे उसके नगर पहुंचा दे तो वह उसको उसके धन का चतुर्थ भाग देगा। धनद की विशाल धनराशि देखकर सुदत्त का चित्त लोभ से कलुषित बन गया। उसने वाग्जाल में उलझाकर धनद को कुएं में धकेल दिया और उसकी सारी संपत्ति चुराकर अपने जहाज पर चला गया। धनद मेखला पर अटक गया। कुछ देर में वह सहज हुआ तो उसने मेखला के पास एक द्वार देखा। वह द्वार में प्रविष्ट हुआ। वहां नीचे की ओर सीढियां उतर रही थीं। सीढ़ियों से उतर कर धनद नीचे पहुंचा। वहां उसने एक दिव्य नगर देखा। पर वह नगर भी जनशून्य था। यत्र-तत्र भटकते धनद को एक सप्त मंजिले भवन की सातवीं मंजिल पर एक सुन्दर राजकुमारी मिली, जिसका नाम तिलकसुंदरी था। धनद के प्रश्न पर राजकुमारी ने संक्षेप में समस्त घटनाक्रम स्पष्ट किया और कहा कि यह सब एक दुष्ट राक्षस की दुष्टता का फल है। आखिर राजकुमारी द्वारा निर्दिष्ट विधि से धनद ने राक्षस को मार डाला। अनेक दिव्य मणियां वहां से प्राप्त कर सार्थवाह देवदत्त के सहयोग से धनद कुएं के मार्ग से अपने स्थान पर आया। देवदत्त के साथ उसने यात्रा प्रारम्भ की। पर देवदत्त का मन भी अपार वैभव और सौन्दर्य देखकर पापी बन गया। उसने धनद को समुद्र में फेंक दिया। भाग्योदय से काष्ठफलक के सहारे धनद किनारे पर पहुंच गया। तिलकसुन्दरी ने अपने बुद्धिकौशल से अपने शील की रक्षा की। आखिर उसी तट पर देवदत्त का जहाज भी लगा, जिस पर धनद पहुंचा था। धनद का पुण्य उत्कर्ष पुनः उदय में आया। नगरनरेश के सहयोग से उसने तिलकसुन्दरी को देवदत्त के कब्जे से मुक्त करा लिया तथा अपना धन भी प्राप्त कर लिया। कालान्तर में सुदत्त सार्थवाह भी उस नगर में आया। धनद ने उससे भी अपना धन प्राप्त किया। आखिर अपार वैभव बटोर कर धनद अपने नगर में आया। पिता पुत्र का मिलन हुआ। सुख के दिन लौट आए। अन्तिम वय में चारित्र की आराधना कर धनद देवलोक में गया।
-शान्तिनाथ चरित्र ... जैन चरित्र कोश ...
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