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(क) धनदत्त
पोतनपुर नगर के धनी व्यापारी वसुदत्त का पुत्र । धनदत्त धर्मनिष्ठ और सद्गुणी था । इसके उसका पिता वसुदत्त लोभी और मित्रद्रोही था। एक बार वसुदत्त ने अपने एक मित्र की अमानत दबा ली। उसके मित्र ने राजा से शिकायत की। वसुदत्त पर आरोप सिद्ध हो गया। राजा ने उसका समस्त धन छीन लिया और उसे अपने देश से निर्वासित कर दिया। वसुदत्त अपने परिवार के साथ अनेक स्थानों पर भटकते हुए एक नगर में पहुंचा। दारिद्र्य और आर्त्तध्यान में प्राण त्याग कर वह दुर्गति में गिरा ।
धनदत्त के कन्धों पर पारिवारिक दायित्व आन पड़ा। मुनि-दर्शन और प्रवचन से धनदत्त को सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हुई। उसने अणुव्रत धारण किए और सामायिक - संवर की आराधना करने लगा। परिवारपोषण के लिए उसने एक छोटी सी दुकान से व्यवसाय शुरू किया। प्रामाणिकता और सत्य को उसने अपने व्यवसाय का आधार बनाया । अल्प काल में ही उसका व्यवसाय चमक उठा। उसकी प्रामाणिकता की लोग दुहाइयां देने लगे। अनेक बार विरोधियों ने उस पर दोषारोपण करने चाहे, पर सदैव उसकी धर्मनिष्ठा ढाल बनकर उसकी सहायता करती रही। जीवन भर उसने धर्मयुक्त व्यवसाय किया। आयुष्य पूर्ण कर वह देवगति में गया। देवलोक से च्यव कर वह मानव भव प्राप्त करेगा, संयम की आराधना कर उसी भव में वह मोक्ष में जाएगा। - जैन कथा रत्न कोष / श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र - ( रत्नशेखर सूरिकृत )
(ख) धनदत्त
लोकमान्य प्रभु पार्श्वनाथ के धर्मशासन के समय का एक श्रमणोपासक ।
धनदत्त एक समुद्री व्यापारी था। वह पाटलिपुत्र का निवासी था और अक्सर समुद्र मार्ग से देश-विदेशों में जाकर व्यापार करता था। एक बार जब वह समुद्री यात्रा पर था तो उसने आकाश में एक तोते को उड़ते देखा । धनदत्त तोते की डावांडोल दशा देखते ही समझ गया कि वह उड़ते हुए थक चुका है और उसके प्राण संकट में हैं। धनदत्त करुण हृदय व्यक्ति था । उसने अपना जहाज रुकवा दिया। गोते खाता हुआ तोता जहाज पर आकर गिरा। उसके मुख में दो आम्रफल थे । धनदत्त ने तोते की सेवा-शुश्रूषा की और उसे स्वस्थ बना दिया । तोता मानव - भाषा बोलने में कुशल था । उसने सेठ धनदत्त का बहुत उपकार माना और उसे एक आम्रफल देते हुए बोला कि यह अद्भुत फल है। इसे खाने वाला असाध्य रोगों से मुक्ति पा जाता है। इस फल को यदि बोया जाए तो इससे जो वृक्ष बनेगा, उस वृक्ष के फलों में वे समस्त गुण विद्यमान होंगे, जो इस फल में मौजूद हैं।
व्यापार करके धनदत्त पाटलिपुत्र लौटा। उसने वह फल राजा को भेंट किया और उसके गुण राजा को बताए । अद्भुत फल को पाकर और सेठ की निस्पृहता देखकर राजा अति प्रसन्न हुआ । उसने धनदत्त को नगर सेठ का पद प्रदान किया और उसके व्यापार को करमुक्त कर दिया। राजा के आदेश पर आम्रफल को वपित किया गया । कालक्रम से आम्रवृक्ष जन्मा, बड़ा हुआ और फलित बना । एक रात्रि में हवा के झोंके से एक फल जमीन पर आ गिरा। एक सर्प ने उस फल को स्पर्श कर विषैला बना दिया। इस बात से अनभिज्ञ माली ने वह फल राजा को दिया। राजा ने परीक्षा के लिए वह फल रुग्ण पुरोहित को दिया। उसे खाते ही पुरोहित का देहान्त हो गया। इससे राजा कुपित हो गया और उसने विश्वासघात और हत्या के अपराधी के रूप में धनदत्त को कारागृह में डाल दिया। साथ ही राजा ने माली को आदेश दिया कि विषवृक्ष को नष्ट कर दिया जाए । *** 268
** जैन चरित्र कोश •••